मोदी-ममता की जीत में चिट फण्ड का पीड़ित हारा

Created on Thursday, 14 February 2019 05:59
Written by Shail Samachar

क्या देश सत्ता की राजनीति के आगे हारता जा रहा है? क्या सत्ता ही एक मात्र सरोकार रह गया है? क्या सत्ता के आगेे सबकुछ बौना पड़ गया है? आज यह सवाल शायद हर संवेदनशील व्यक्ति के ज़हन में उठ रहे हैं। क्योंकि पिछले दिनों जो कुछ मोदी और ममता के बीच घटा उससे यही सवाल तो उभरकर सामने आते हैं। 2014 में जब केन्द्र में सत्ता परिवर्तन हुआ था तब पूरा चुनावी परिदृश्य भ्रष्टाचार के गिर्द घूम गया था। अन्ना का लोकपाल के लिये आन्दोलन इसका सबसे बड़ा गवाह है। आज जब फिर लोकसभा के चुनाव सामने हैं और फिर सत्ता का फैसला होने जा रहा है तब फिर वही सबकुछ अपने को दोहराता नज़र आ रहा है। भ्रष्टाचार जहां 2014 में खड़ा था आज 2019 में भी वहीं खड़ा है। भ्रष्टाचार के जो मुद्दे उस समय खड़े थे उन पर पांच वर्षों के कार्यकाल में कुछ भी आगे नहीं बढ़ा है। अन्ना को फिर अनशन पर बैठना पड़ा। लेकिन इस बार अन्ना ने यह अवश्य स्वीकारा है कि 2014 में मोदी और केजरीवाल ने उनका इस्तेमाल किया था। परन्तु इस अनुभव के बाद भी अन्ना यह नहीं बता पाये कि वह इन चुनावों मे किसका समर्थन करेंगे। यह चुप्पी अन्ना की ईमानदारी है या विवशता इसका फैसला पाठकों को स्वयं करना होगा।
भ्रष्टाचार आज व्यवस्था की सबसे बड़ी बीमारी है और सभी इससे सहमत भी हैं। 1975 के आपातकाल के बाद हुए हर चुनाव में भ्रष्टाचार मुद्दा रहा है। भ्रष्टाचार कतई बर्दाश्त नही होगा और भ्रष्टाचारी को कड़ी से कड़ी सजा़ दी जायेगी यह वायदे भी हर चुनाव में मिले हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ जांच आयोग भी बैठे लेकिन क्या कोई ठोस परिणाम सामने आया है शायद नही। हां इस दौरान राज्यों में लोकायुक्त अवश्य स्थापित हुए हैं लेकिन क्या लोकायुक्त भी कोई स्मरणीय परिणाम दे पाये हैं? शायद इसका जबाव भी नहीं ही हैै। ऐसे में जब लोकायुक्त परिणाम नही दे पाये हैं तो लोकपाल क्या परिणाम देंगे इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। भ्रष्टाचार पर देश की सबसेे बड़ी जांच ऐजेन्सी सीबीआई के शीर्ष अधिकारियों ने एक दूसरे के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाये हैं यह देश देख चुका है। सीबीआई सीधे प्रधानमन्त्री के नियन्त्रण में है और पीएमओ इन अधिकारियों के झगड़े पर तब तक खामोश बैठा रहा जब तक की एफआईआर दर्ज होने और उच्च न्यायालय तक जाने की नौबत नही आ गयी। इसके बाद जो कुछ सरकार ने किया सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार की इस कारवाई को गलत करार दिया। लेकिन उसी सर्वोच्च न्यायालय का जब राफेल पर फैसला आया और उस फैसले पर अभी प्रतिक्रियाओं में जब सरकार पर शीर्ष अदालत में गलत ब्यानी का आरोप लगा तब सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को यह कह दिया कि अदालत ने सरकार के जवाब में प्रयुक्त व्याकरण और भाषा को सही से नही समझा है। सरकार ने शीर्ष अदालत में यह सबकुछ लिखकर दिया है और आग्रह किया है कि इसे सुधार लिया जाये। लेकिन अभी तक शीर्ष अदालत ने सरकार के इस आग्रह पर आगे कुछ नही किया है। इस कुछ न करने से यह कहना कठिन है कि कौन सही है।
इसी तरह बंगाल में घटा चिटफण्ड घोटाला तो हुआ है। जनता के हजारों करोड़ों इसमें डूबे हैं। इतने बड़े घोटाले के पीछ किसी का राजनीतिक और प्रशासनिक आशीर्वाद न रहा यह विश्वास करना भी कठिन है लेकिन आज यह मामला किस तरह राजनीति की भेंट चढ़ रहा है यह देश के सामने आ गया है। जब इसमें सर्वोच्च न्यायालय ने राजीव कुमार की गिरफ्तारी पर रोक लगाते हुए उसे सीबीआई के पास पेश होने के निर्देश दिये तो इसे ममता और मोदी दोनों ने अपनी जीत करार दिया। जब दोनों की ही जीत हुई है तो निश्चित रूप से इसमें हर वह आदमी हारा है जिसका पैसा इस घोटाले में डूबा है। क्योंकि अब घोटाले से पहले यह जांच होगी कि इसमें सीबीआई सही था या राजीव कुमार। इसमें अब राजनीति के लिये दोनो पक्षों को खुला मैदान मिल गया है। क्योंकि इसी मामले में जिस टीएमसी सांसद मुकुल कुमार से सीबीआई पूछताछ कर चुकी है वह अब भाजपा में शामिल हो चुका है। यही नही वह आईएस अधिकारी भारती घोष जिसके यहां छापेमारी में 2.5 करोड़ की रिकवरी हुई थी वह भी भाजपा में शामिल हो चुकी है। इसी के साथ सीबीआई के जिस निदेशक नागेश्वर राव के निर्देशों पर ऐजैन्सी के चालीस लोगों की टीम राजीव कुमार के यहां छापेमारी के लिये गयी थी उसकी पत्नी और बेटी के खिलाफ बंगाल में चल रही जांच का प्रकरण भी सामने आ गया है। इस तरह एक दूसरे के खिलाफ राजनीतिक फायरिंग करने के लिये काफी बारूद इकट्ठा हो गया है। इस पर अब खुलकर इन चुनावों तक राजनीति होगी और चिटफण्ड घोटाला अगले चुनावों तक ऐसे ही धीरे-धीरे सुलगता रहेगा। यही सबकुछ अखिलेश, माया, हुड्डा और वाड्रा के मामलों का सच है। हर चुनाव से पहले उठेंगे और फिर शांत हो जायेंगे। 1984 के दंगो में अब सज़ा की बारी आयी है इसी तरह संभव है कि गुजरात दंगा के दोषीयों  की बारी भी चालीस साल बाद आ जाये क्योंकि हत्यायें तो वहां भी हुई हैं।
यह सब एक भयानक सच है कि आज देश के राजनीतिक नेतृत्व को अपराध और भ्रष्टाचार से राजनीति से हटकर कोई सरोकार नही रह गया है। न्यापालिका भी अब इसमें बराबर की भागीदार बनती जा रही है क्योंकि दशकों तक लोकहित के मामले लंबित रखे जा रहे हैं। जांच ऐजैन्सीयों की जिम्मेदारी अदालतें अपने फैसलों में तो लगा देती हैं लेकिन उसके बाद उन निर्देशों /आदेशों पर कितना अमल हुआ है यह जानने का प्रयास ही नही किया जाता। क्योंकि सामाजिक सरोकारों के लिये कोई भी गंभीर और संवेदनशील नही रह गया है। हर अपराध और भ्रष्टाचार को सत्ता की सीढी बनाकर इस्तेमाल किया जा रहा है। सत्ता के लिये सारी स्थापित रिवायतों को तोड़ा जा रहा है और फिर उसे जायज़ भी ठहराया जा रहा है। इस पर सवाल उठाने वाले को आसानी से वैचारिक विरोधी करार दे दिया जाता है। आज सत्ता इस राजनीति के आगे तो शायद राम भी हारते जा रहे हैं। क्योंकि जब मन्दिर निर्माण के लिये साधुओं ने कूच कर दिया है तो वहां पर होने वाली कानून और व्यवस्था की जिम्मेदारी किसी भी संगठन को लेने की आवश्यकता ही नही रह जाती है। इसी परिदृश्य में तो वीएचपी ने चार माह के लिये अपना आन्दोलन स्थगित किया है। राजनीति की इस पराकाष्ठा के बाद शायद यही कहना पड़ेगा कि आज की राजनीति के आगे सिर्फ देश हार रहा है।