प्रज्ञा की उम्मीदवारी से उठते सवाल

Created on Wednesday, 24 April 2019 05:45
Written by Shail Samachar

लोकसभा चुनाव के दो चरण पूरे हो चुके हैं। इनमें 186 सीटों पर वोट डाले जा चुके हैं लेकिन यह चुनाव किन मुद्दों पर लड़ा जा रहा है और अब तक जो मतदान हुआ है उसमें कौन से मुद्दे प्रभावी रहे हैं इस पर वह लोग भी स्पष्ट नही है जो वोट डाल चुके हैं। शायद ऐसा पहली बार हो रहा है कि राष्ट्रीय मुद्दों पर कोई खुलकर बहस सामने नहीं आ रही है। इसीलिये इस चुनाव के परिणाम घातक होने की संभावना बढ़ती जा रही है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि यह चुनाव साईलैन्ट मोड़ में क्यों चल रहा है। क्या सही में देश के सामने आज कोई मुद्दा ही नही बचा है? क्या सारी समस्याएं हल हो चुकी हैं। देश की समस्याओं/मुद्दों का आकलन करने के लिये यह समझना आवश्यक है कि 2014 में जब यह चुनाव हुए थे तक किन सवालों पर यह चुनाव लड़ा गया था। उस समय केन्द्र में कांग्रेस के नेतृत्व में एनडीए की सरकार थी। उस सरकार के खिलाफ स्वामी रामदेव और अन्ना हजारे जैसे समाज सेवीयों ने मंहगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और कालेधन के मुद्दे उठाये थे। इन्ही मुद्दों को लेकर लोकपाल की मांग एक बड़े आन्दोलन के रूप में सामने आयी थी। प्रशान्त भूषण जैसे बड़े वकील ने कोल ब्लाॅक आवंटन टू जी स्पैक्ट्रम और कामन वैल्थ गेम्ज़ में हुए भ्रष्टाचार को लेकर सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था और शीर्ष अदालत ने भी इनका संज्ञान लेते हुए इनमें जांच के आदेश दिये थे। जांच के दौरान कई राजनेताओं, नौकरशाहों और कारपोरेट घरानो के लोगों की गिरफ्तारीयां तक हुई थी। 2014 का चुनाव इन मुद्दों की पृष्ठभूमि में हुआ और सरकार बदल गयी क्योंकि भाजपा ने उस समय इन सभी मुद्दों पर प्रमाणिक और प्रभावी तथा समयबद्ध कारवाई का वायदा करके देश में अच्छे दिन लाने का भरोसा दिलाया था।
उस समय यूपीए सरकार का मंहगाई, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार को लेकर जो विरोध हुआ था उसे तब किसी ने भी राष्ट्रद्रोह की संज्ञा नही दी थी। तब किसी एक व्यक्ति/नेता की स्वीकार्यता के लिये वातावरण तैयार नही किया गया था। सरकार के विरोध को रोकने के लिये कोई कदम नही उठाये गये थे। परिणामस्वरूप सारा सत्ता परिवर्तन एक स्वभाविक प्रक्रिया के रूप में घट गया था। इसलिये आज जब फिर चुनाव आ गये हैं तब स्वभाविक है कि 2014 में उठे सवालों की वस्तुस्थिति आज क्या है यह जानना आवश्यक हो जाता है। उस समय पेट्रोल, डीजल की कीमतों और डालर के मुकाबले रूपये की घटती कीमतों पर नरेन्द्र मोदी से लेकर नीचे तक के एनडीए नेताओं ने जिस तर्ज पर सवाल उठाये थे आज यदि उन्ही की भाषा में वही सवाल प्रधानमंत्री मोदी से लेकर पूरे एनडीए नेतृत्व से पूछे जायें तो शायद वह उन्हे सुन भी नही पायेंगे। भ्रष्टाचार के जो मुद्दे उस समय उठे थे वह आज सारे खत्म हो गये हैं एक में भी किसी को सज़ा नही मिली है। उल्टे भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम में ही संशोधन करके ऐसा कर दिया है कि कोई भ्रष्टाचार की शिकायत करने का साहस ही नही कर पायेगा। बेरोज़गारी के मुद्दे पर यह सामने ही है कि जो प्रतिवर्ष दो करोड़ नौकरीयों का वायदा किया गया था उसकी हकीकत सरकार की अपनी ही रिपोर्टों से सामने आ गयी है। सरकार की अपनी रिपोर्ट के मुताबिक (जो नेशनल सैंपल सर्वे के माध्यम से सामने आयी है) नोटबंदी के बाद पचास लाख लोगों की नौकरी चली गयी है और केन्द्र सरकार तथा उसके विभिन्न अदारों में आज 22 लाख पद खाली पड़े हैं दूसरी ओर आरबीआई से आरटीआई के तहत आयी सूचना के मुताबिक मोदी सरकार के कार्यकाल में 5,55,603 करोड़ के ऋण बड़े लोगों के माफ कर दिये गये हैं। यह ऋण इस देश के आम आदमी का पैसा था जिसे कुछ लोगों की भेंट चढ़ा दिया गया। स्वभाविक है कि जब इस तरह की स्थिति होगी तो कल को इसका सीधा प्रभाव मंहगाई और बेरोज़गारी पर पड़ेगा।
2014 में इन मुद्दों के कारण सरकार बदली थी लेकिन आज यह सरकार इन मुद्दों पर बात ही नही होने दे रही है। हर सवाल राष्ट्रवाद के नाम पर दबा दिया जा रहा है। जो सरकार यह दावा कर रही है कि उसके राज में कोई भ्रष्टाचार नही हुआ है वह अभी कपिल सिब्बल द्वारा नोटबंदी पर उठाये गये सवालों का जवाब नही दे पा रही है। राफेल सौदे में सर्वोच्च न्यायालय ने रिव्यू के आग्रह को स्वीकार कर लिया है। यह आग्रह स्वीकार करते हुए शीर्ष अदालत ने पैंटागन पेपर्स पर यूएस कोर्ट द्वारा दिये गये फैसले को अपने फैसले का एक आधार बनाया है। अदालत ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि "The concern of the government is not ot protect national security, but to protect the government officials who interfered with the negotiations in the deal"  सर्वोच्च न्यायालय की इस टिप्पणी के बाद बहुत कु छ स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है। राफेल के मुद्दे पर राहुल गांधी ने जब से प्रधानमंत्री पर अपरोक्ष में  ‘‘चौकीदार चोर’’  का आरोप लगाया है उस पर भाजपा ने अब दो चरणों के मतदान के बाद राहुल गांधी के खिलाफ मामले दर्ज करवाने की बात की है। इतनी देरी के बाद भाजपा का यह कदम राजनीति की भाषा में बहुत कुछ कह जाता है। क्योंकि अब भाजपा ने भोपाल से साध्वी प्रज्ञा को चुनाव उम्मीदवार बनाकर एक और बड़ा संदेश देने का प्रयास किया है।
साध्वी प्रज्ञा ठाकुर मालेगांव धमाकों में एक आरोपी है। महाराष्ट्र की ए. टी. एस ने उन्हें गिरफ्तार किया था। यह गिरफ्तारी मकोका के तहत हुई थी। लेकिन जब यह जांच एन आईए के पास आ गयी थी तब एक स्टेज पर एन आई ए ने मकोका को लेकर प्रज्ञा को क्लीन चिट दे दी थी। लेकिन अदालत ने इस क्लीन चिट को स्वीकार नहीं किया और उनकी गिरफ्तारी जारी रही। अब उन्हे नौ साल जेल में रहने के बाद स्वास्थ्य के आधार पर जमानत मिली है। स्वास्थ्य कारणों पर जमानत लेने के बाद वह चुनाव लड़ रही है। उनके मामले की तब जांच कर रहे ए टी एस प्रमुख हेमन्त करकरे की मुम्बई के 26/11 के आतंकी हमले में मौत हो गयी थी। प्रज्ञा ने इस मौत को उनके श्राप का प्रतिफल कहा है। प्रज्ञा के इस ब्यान से भाजपा ने पल्ला झाड़ लिया है। इस ब्यान के बाद प्रज्ञा का बाबरी मस्ज़िद का लेकर ब्यान आया। प्रज्ञा ने दावा किया है कि उन्होंने स्वयं मस्जि़द पर चढ़कर उसे गिराने का काम किया है। चुनाव आयोग ने इस ब्यानों का संज्ञान लिया है अदालत में उनकी जमानत रद्द करने की याचिका जा चुकी है। इस परिदृश्य में प्रज्ञा को भाजपा द्वारा उम्मीदवार बनाना सीधे-सीधे हिन्दु ध्रुवीकरण की कवायद बन जाता है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या अदालत उनकी जमानत रद्द करके उन्हें जेल से ही चुनाव लड़वाती है या जमानत बहाल रखती है क्योंकि अदालत ने हार्दिक पटेल को भी चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं दी है। और हार्दिक पटेल से प्रज्ञा का मामला ज्यादा गंभीर है।