उच्च न्यायपालिका की भूमिका पर लगी देश की नज़रें

Created on Monday, 01 July 2019 09:11
Written by Shail Samachar

संसद में राष्ट्रपति अभिभाषण पर चली बहस अन्त में जवाब देते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस अंदाज में आपातकाल और देश के मुस्लिमों का जिक्र उठाया है उससे कई अहम सवाल फिर से खडे़ हो गये हैं जिन पर खुली बहस की आवश्यकता जरूरी हो गयी है। प्रधानमंत्री ने बड़े स्पष्ट शब्दों में यह कहा है कि यदि आपातकाल के समय देश के सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी भूमिका ईमानदारी से निभाई होती तो शायद आपातकाल न लग पाता। आपातकाल आज से 44 वर्ष पहले 25 जून 1975 को लगा था। उस समय आपातकाल से पहले की स्थितियां क्या रही थीं नरेन्द्र मोदी ने उनका जिक्र नही किया है। 1971 मे आम चुनाव हुए थे और कांग्रेस को एक अच्छा बहुमत मिला था क्योंकि उस समय चुनावों की पृष्ठभूमि में पूर्व राजाओं के प्रिविपर्स समाप्त करना और बैंकों का राष्ट्रीयकरण जैसे आर्थिक फैसले तथा बंगला देश जैसे राजनीतिक घटनाक्रम देश के सामने थे। लेकिन उस समय श्रीमति गांधी के रायबरेली से चुनाव को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती मिली। उच्च न्यायालय ने 12 जून 1975 को अपने फैसले में इस चुनाव को रद्द कर दिया। इस फैसले की सर्वोच्च न्यायालय में अपील की गयी और सर्वोच्च न्यायालय ने 24 जून को दिये अपने फैसले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को बहाल रखा।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद श्रीमति गांधी पर पद त्याग के लिये दवाब आया। लेकिन श्रीमति गांधी ने पद त्यागने के बजाये अपने सलाहकारों की राय पर अमल करते हुए देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। महत्वपूर्ण विपक्षी नेताओं को जेलों में डाल दिया गया। अखबारों पर सैन्सर लगा दिया। आपातकाल में नेताओं की रिहाई के लिये बंदी प्रत्याक्षीकरण याचिकाएं उच्च न्यायालय में आयी। सर्वोच्च न्यायालय ने इन याचिकाओं को अपने पास ट्रांसफर कर लिया और एडीएम जबलपुर बनाम शिवकान्त शुक्ल नाम से यह मामला वहां आ पहुंचा। पांच जजों की संविधान पीठ में इसकी सुनवाई हुई। चार जजों ने सरकार ने अपातकाल लागू करने के फैसले को जायज ठहराया। केवल जस्टिस एचआर खन्ना ने इसके विरोध में फैसला दिया। आपातकाल को जायज ठहराने वाले जज थे चीफ जस्टिस ए एन रे, जस्टिस एम एच वेग, जस्टिस वाई वी चन्द्रचूड़ और जस्टिस पी एन भगवती। आपातकाल में करीब 63 लोगों की जेलों में मौत हो गयी थी। उस समय यदि सर्वोच्च न्यायालय का बहुमत इस आपातकाल का समर्थन न करता तो शायद आज परिस्थितियां कुछ भिन्न होती। आपातकाल 44 वर्ष पहले लगा था और तब से लेकर अब तक बहुत पानी बह चुका है। देश ने 1984 के दंगो से लेकर गोधरा कांड और समझौता ब्लास्ट जैसे कई दृश्य देख लिये हैं। आर्थिक मोर्चे पर नोटबंदी  से लेकर जीएसटी तक देश बहुत कुछ झेल चुका है। हर घटना में लोगों की जाने गयी हैं इस सच्च को झुठलाना संभव नही है। समय कब करवट बदलेगा कोई नही जानता लेकिन यह शाश्वत सत्य है कि प्रकृति ना कभी कुछ भूलती है और न ही माफ करती है।
2014 में जब देश की जनता ने भाजपा /मोदी को सत्ता सौंपी थी उस समय क्या दावे और वायदे किये गये थे और उनमें से आज कितने पूरे हुए हैं यह न तो जनता को भूला है और ही शासक वर्ग को इसकी याद दिलाने की जरूरत है। आज की सच्चाई यह है कि सरकार को रिजर्व बैंक से आरक्षित निधि में से पैसा मांगना पड़ रहा है। आरक्षित निधि में से यह पैसा दिया जाना चाहिये या नहीं इस पर आरबीआई में एक राय न होने से इसके दो गवर्नर और एक डिप्टी समय से पहले ही अपने पद त्याग चुके हैं। देश के आर्थिक सलाहकार रहे अरविन्द सुब्रहमण्यम का आर्थिक वृद्धि दर का आकलन अन्तर्राष्ट्रीय बहस का विषय बन चुका है। इन तथ्यों की भले ही आम आदमी को समझ न हो लेकिन इनका अन्तिम प्रभाव इसी आम आदमी पर पड़ेगा यह तय है। आज आम आदमी मंहगाई और बेरोजगारी से पीड़ित है यह एक कड़वा सच है।
 आज सरकार को जो अभूतपूर्व जन समर्थन इन चुनावों में मिला है उसको लेकर जो ईवीएम पर दोष डाला जा रहा है उसकी पृष्ठभूमि 2001 में मद्रास उच्च न्यायालय 2002 केरल उच्च न्यायालय और 2004 में कर्नाटक उच्च न्यायालयों में आयी याचिकाएं भी हैं। इसी के साथ आज 20 लाख ईवीएम मशीने गायब होने को लेकर मुम्बई उच्च न्यायालय और ग्वालियर उच्च न्यायालय में आयी याचिकाएं भी हैं। गायब हुई मशीनों पर फैसला देना आज देश की उच्च न्यायपालिका के लिये शायद आपातकाल से भी बड़ा टैस्ट बन चुका है। इन गायब मशीनों पर चुनाव आयेग की खामोशी से न केवल आयेग की अपनी विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल खड़े हो गये हैं बल्कि सरकार को मिले इस भारी जन समर्थन पर भी सवालिया निशान लगा दिया है। आज यह प्रधानमंत्री को तय करना है कि वह इस विश्वास को कैसे बहाल करते हैं। क्योंकि कांग्रेस को कोसने से यह विश्वास बहाल नही हो सकता। बल्कि जिस तरह से राजनीतिक तोड़फोड़ शुरू हो चुकी है और सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में जो प्रैस की आज़ादी पर परोक्ष/अपरोक्ष अंकुश लगाने के प्रयास हुए हैं उससे एक बार फिर आपात जैसी आशंकाएं उभरने लग पड़ी हैं।