उत्पादक की क्षमता से पहले उपभोक्ता की क्रय शक्ति बढ़ानी होगी

Created on Monday, 23 September 2019 06:20
Written by Shail Samachar

इस समय देश एक ऐसे दौर से गुज़र रहा है जहां किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिये ज्यादा देर तक तटस्थता की भूमिका में रह पाना संभव नही होगा। जिस तरह से आर्थिक मंदी और उससे निपटने के उपाय सामने आ रहे हैं उनसे हर आदमी सीधे तौर से प्रभावित हो रहा है। भले ही वह उस प्रभाव के बारे में सजग है या नही। क्योंकि इस आर्थिक मंदी से उत्पादन का हर क्षेत्र प्रभावित हुआ है और उसका सीधा प्रभाव रोज़गार पर पड़ा है। करोड़ो लोग परोक्ष/अपरोक्ष रूप से बेरोज़गार हुए हैं। सरकार ने इस कड़वे सच को स्वीकारते हुए उद्योगों को 1.45 लाख करोड़ की राहत प्रदान की है। यह राहत जीएसटी और कुछ अन्य टैक्सों की दरें कम करने के रूप में दी गयी है। इस राहत से सरकारी कोष में 1.45 लाख करोड़ के राजस्व की कमी आयेगी। यह कमी कैसे पूरी की जायेगी इसका कोई विकल्प सीधे रूप में सामने नहीं रखा गया है। माना जा रहा है कि इस कमी को विनिवेश के माध्यम से पूरा किया जायेगा जिसका अर्थ होगा कि कुछ और सरकारी संपत्तियों को नीजिक्षेत्र को सौंपा जायेगा। क्योंकि जीएसटी के माध्यम से जितना राजस्व आने की उम्मीद थी उसमें भी करीब दो लाख करोड़ की कमी रहने की उम्मीद है। सरकार 1.45 लाख करोड़ की राहत की घोषणा से पहले ही आरबीआई से 1.76 लाख करोड़ ले चुकी है। अब इस राहत के बाद स्वभाविक है कि राजस्व में कमी आयेगी इसलिये सरकार इस कमी को कहां से कैसे पूरा करेगी और इसका आम आदमी पर क्या प्रभाव पड़ेगा यह पहला सवाल है।
सरकार की 1.45 लाख करोड़ की राहत के साथ बाज़ार में खुशी की लहर देखने को मिली है। बाज़ार में निवेश में एकदम उछाल आया है। इस राहत से उत्पादन में जो कमी आयी थी वह रूक जायेगी उसमें बढ़ौत्तरी भी आ जायेगी और रोज़गार जाने का जो संकट पैदा हो गया था उसमें भी कुछ रोक लग जायेगी। मोटर गाड़ियां और हाऊसिंग का निर्माण फिर पुरानी चाल पर आ जायेगा यह माना जा रहा है। लेकिन इस सबसे खरीद पर भी असर पड़ेगा इसको लेकर संशय है। बाज़ार में 55 हजार करोड़ की गाड़ियां पहले से मौजूद हैं लेकिन उन्हे खरीदने वाला कोई नहीं था इसलिये आटोमोबाईल क्षेत्र में मंदी आयी थी। इसी तरह बाज़ार में 18 लाख घर बनकर तैयार हैं परन्तु लेने वाला कोई नही है। मंदी की तो परिभाषा ही यह है कि आपके पास बेचने के लिये तो सामान तैयार है परन्तु लेने वाला कोई नही हैं। इसका पता इसी से चल जाता है कि आरबीआई पांच बार ऋण की ब्याज दरों पर कटौती की घोषणाएं कर चुका है। यह घोषणाएं यह प्रमाणित करती है कि निवेशक और उपभोक्ता दोनो ही ऋण लेने से कतरा रहे हैं। क्योंकि दोनों के पास ऋण वापिस करने के पर्याप्त साधन नही हैं और बैंक भी एनपीए का और बोझ उठाने की स्थिति में नही हैं।
इस परिदृश्य में यह सवाल उठता है कि आखिर यह हालात पैदा क्यों और कैसे हो गये? क्या सरकार की प्राथमिकताएं अव्यवहारिक हो गयी हैं। सरकार जब छोटे किसानों और दुकानदारों को पैन्शन तथा गरीबों को ईलाज के लिये आयुष्मान भारत जैसी योजनाएं लाने की बात करती है तो इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह मानती है कि उसकी योजनाओं से समाज के इस वर्ग का जीवन यापन कठिन हो गया है। यह वर्ग सरकार की योजनाओं के गुण दोषों का आकलन करने न लग जाये इसलिये उसे इस तरह की राहतें देकर कुछ समय के लिये शांत रखने का उपाय किया गया है। लेकिन यहां यह सवाल उठता है कि आखिर ऐसा कब तक किया जा सकता है। आज एक वर्ग को 1.45 लाख करोड़ की राहत देकर मंदी से बाहर निकालने का उपाय किया गया है लेकिन जिस ढंग से सरकारी निकायों का विनिवेश किया जा रहा है और सभी सरकारी उपक्रमों के 75% सरप्लस संसाधनों को समेकित निधि में शामिल करने के लिये आदेश किये जा चुके हैं क्या उससे आने वाले समय में यह सरकारी उपक्रम स्वतः ही बन्द होने की कगार पर नही आ जायेंगें तब बेरोज़गारों का एक और बड़ा वर्ग नहीं पैदा हो जायेगा? क्योंकि आज तो कोरपोरेट टैक्स घटाकर उद्योगपति को राहत दे दी गया है लेकिन उस राहत से उपभोक्ता की क्रय शक्ति नहीं बढ़ रही है और जिस तरह की योजनाएं चल रही हैं उससे यह क्रय शक्ति भविष्य में भी बढ़ने की कोई संभावना नज़र नहीं आ रही है।
आम आदमी के पास आय के सामान्य संसाधन क्या रह गये हैं? आज भी देश की 70% आबादी कृषि पर निर्भर है और यह प्रमाणित सत्य है कि जब तक कृषि पर आत्मनिर्भरता नहीं बनेगी तब तक औद्यौगिक निर्भरता का कोई बड़ा अर्थ नहीं रह जाता है। कृषि पर आधारित किसान आत्महत्या करने पर मजबूर होता जा रहा है और उद्योगपत्ति हज़ारों करोड़ का एनपीए डकार कर भी सुरक्षित और सम्मानित घूम रहा है। नोटबंदी के पांच दिन बाद ही 63 अरबपतियों का 6000 करोड़ का कर्ज माफ कर दिया गया था। उसी दौरान की एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक कुछ अरबपति बैंकों का आठ लाख करोड़ डकार गये थे और मोदी सरकार ने इसमें से 1,14,000 करोड़ तो माफ कर दिये थे। उस समय केजरीवाल ने वाकायदा एक पोस्टर के माध्यम से यह आरोप लगाये थे लेकिन आजतक इन आरोपों का कोई जवाब नही आया है। ऐसे ही कई और आरोप हैं जिनके जवाब नही आये हैं जिनमें कपिल सिब्बल का जाली नोटों को लेकर लगाया गया आरोप बहुत ही गंभीर है। आरोपों का जब सार्वजनिक रूप से जवाब नही आता है और न ही आरोप लगाने वाले के खिलाफ कोई कारवाई की जाती है तब आम आदमी के पास आरोपों को सच मानने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रह जाता है। आज सरकार इसी कगार पर पहुंचती जा रही है। इसलिये आर्थिक मंदी को रोकने के लिये उत्पादक से पहले उपभोक्ता की क्रय शक्ति को बढ़ाने की आवश्यकता है। आर्थिकी एक ऐसा पक्ष है जिस पर हर आदमी अपनी-अपनी तरह चिन्ता और चिन्तन करता है क्योंकि भूखे आदमी के हर सवाल का जवाब केवल रोटी ही होता है।