क्या बैंको में आम आदमी का पैसा सुरक्षित है?

Created on Monday, 21 October 2019 13:44
Written by Shail Samachar

पिछले कुछ अरसे से देश की आर्थिक स्थिति लगातार चिन्तन और चिन्ता का विषय बनी हुई है। जब से पी एम सी और लक्ष्मी विलास बैंक के कारोबार पर आरबीआई ने रोक लगायी तब से यह चिन्ता और बढ़ गयी है। लोगों में यह भय व्याप्त हो गया है कि बैकों में रखा उनका पैसा सुरक्षित है या नहीं। बैंकों की यह स्थिति लगातार बढ़ते एनपीए और फ्राड की घटनाओं के कारण हो रही है। संसद के मानसून सत्र में यह आंकड़ा सामने आ चुका है कि बैंकों का साढ़े आठ लाख करोड़ का एनपीए राइट आॅफ कर दिया गया है। इसी के साथ यह भी सामने आया है कि मोदी सरकार के कार्यकाल में अब तक करीब पौने दो लाख करोड़ के बैंक फ्राड घट गये हैं जबकि डा.मनमोहन सिंह की सरकार में 2009 से 2014 तक कुल 29000 हजार करोड़ के बैंक फ्राड हुए हैं। लेकिन इसकी तुलना में मोदी सरकार में तो वित्तिय वर्ष 2019 -20 के पहले तीन माह में ही 31000 करोड़ से कुछ अधिक के फ्राड घट गये हैं। लेकिन मोदी सरकार लोगों की इस चिन्ता को लेकर कोई आश्वासन नही दे पा रही है। आरबीआई इस अस्पष्ट स्थिति के कारण आर्थिक विकास दर का कोई एक लक्ष्य तय नही कर पायी है। इसी कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण ही सरकार को रिर्जव बैंक से सुरक्षित धन लेना पड़ा है और कारपोरेट जगत को 1.45 लाख करोड़ की कर राहत देनी पड़ी है। इसी के परिणामस्वरूप सरकार को अपने उपक्रम निजिक्षेत्र को देने की योजना बनानी पड़ी है। विनिवेश मंत्रालय इस काम पर लगा हुआ है। यह तय है कि जिस दिन बड़े उपक्रम प्राईवेट सैक्टर में चले जायेंगे तभी बड़े पैमाने पर नौकरियों का संकट सामने आयेगा।

देश व्यवहारिक रूप से इस संकट के दौर से गुज़र रहा है लेकिन अभी तक सरकार इस स्थिति को स्वीकार करने के लिये तैयार नही हो रही है। सरकार अभी भी देश को धारा 370 और 35 ए तथा तीन तलाक जैसे मुद्दों के गिर्द ही घुमाये रखने का प्रयास कर रही है। प्रधानमंत्री और गृहमन्त्री विधान सभाओं के चुनावों को भी इन्ही मुद्दों के गिर्द केन्द्रित रखने का प्रयास कर रहे हैं। क्योंकि बढ़ती बेरोज़गारी और मंहगाई के सामने सरकार के पास और कुछ भी आम आदमी के सामने परोसने के लिये नहीं है। बेरोज़गारी और मंहगाई दो ऐसे मुद्दे हैं जो देश की 90ः आबादी को सीेधे प्रभावित करते हैं। सरकार आर्थिक स्थिति के लिये अभी कांग्रेस को ही दोषी ठहराने का प्रयास कर रही है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश को सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी बहुत कुछ ब्यान कर जाती है कि वहां पर सरकार नही जंगल राज है।
इस परिदृश्य में यह सवाल अब लगातार चर्चा का विषय बनता जा रहा है कि आखिर इस सबका अन्त होगा क्या। आर्थिक मंदी से निकट भविष्य में बाहर निकलने की कोई संभावना नहीं दिख रही है। क्योंकि सरकार का हर उपाय केवल उद्योगपति को ही लाभ पहुंचाता नजर आ रहा है इससे उपभोक्ता की हालत में कोई सुधार नही हो रहा है बल्कि जब उत्पादक को कर राहत दी जाती है तो उससे सरकारी कोष को ही नुकसान पहुंचता है क्योंकि सरकार को मिलने वाले राजस्व में कमी आ जाती है। इस कमी को पूरा करने के लिये आम आदमी की जमा पूंजी पर ब्याज दरें कम कर दी जाती है 2014 से ऐसा लगातार हो रहा है। हर आदमी को ब्याज दरें घटने से नुकसान हुआ है। राजनीतिक दल इस पर खामोश बैठे हुए हैं क्योंकि विरोध के हर स्वर को देशद्रोह करार दिया जा रहा है। जब इकबाल की प्रार्थना मदरसे में गाये जाने पर सज़ा दी जा सकती है तो फिर उससे आगे कुछ भी बोलने को शेष नहीं रह जाता है। आज राजनीतिक दलों से ज्यादा तो आम आदमी की सहन शक्ति परीक्षा की कसौटी पर आ गयी है। क्योंकि जब आम आदमी की बैंकों में रखी जमा पंूजी पर असुरक्षा की तलवार लटक जाती है तब उसके पास व्यवस्था के खिलाफ खड़ा होने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रह जाता है। न्यायपालिका जब सरकार के खिलाफ यह टिप्पणी करने लग जाये कि वहां पर कानून और व्यवस्था की जगह अराजकता ने ले ली है तब आम आदमी का विश्वास का अन्तिम सहारा भी चूर चूर हो जाता है। आज दुर्भाग्य से देश उसी स्थिति की ओर धकेला जा रहा है जो आजादी से पहले थी तब भी देश की पंूजी कुछ ही लोगों के हाथों में केन्द्रित थी और आज भी वैसा ही होने जा रहा है।