पीठासीन अधिकारियों के 80वें सम्मेलन को संबोधित करते हुए महामहिम राष्ट्रपति ने यह चिन्ता व्यक्त की है कि संसद से लेकर राज्यों तक की विधानसभाओं में सार्थक और रचनात्मक संवाद नही हो रहा है जबकि यह विचार विमर्श ही है जो विवाद पैदा नही होने देता है। इसी अवसर पर उपराष्ट्रपति ने तो यहां तक कह दिया कि न्यायपालिका, कार्यपालिका और व्यवस्थापिका सभी अपने अधिकारों का अतिक्रमण कर रहे हैं। इसी सम्मेलन को संबोधित करते हुए प्रधानमन्त्री ने फिर एक राष्ट्र-एक चुनाव की आवश्यकता पर बल देते हुए तर्क दिया है कि ज्यादा चुनाव विकास में बाधा पहुंचाते हैं। देश के तीन शीर्षस्थ व्यक्तियों ने जो चिन्ताएं व्यक्त की हैं उन्हे नकारा नही जा सकता है। यह इस समय के कड़वे सच हैं। लेकिन इसी के साथ यह सवाल भी खड़ा होता है कि क्या इन सवालों के हल की प्रक्रिया भी इन्ही तीनों के स्तर पर ही शुरू नही होनी चाहिये? यदि आज संसद से लेकर विधानसभाओं तक में सार्थक और रचनात्मक संवाद नही हो रहा है तो इसके लिये जिम्मेदार कौन है? क्या इसका दोष देश की जनता को दिया जाना चाहिये जो अपने प्रतिनिधि चुनकर भेजती है? या उस व्यवस्था को दोष दिया जाना चाहिये जिसके तहत ऐसे आपराधिक छवि के माननीयों की संख्या बहुत ज्यादा हैं। इनके मामलों को प्राथमिकता के आधार पर निपटने की कई व्यवस्थाएं शीर्ष अदालत दे चुकी है। लेकिन परिणाम क्या रहा है शायद कुछ भी नही। इस बार जब आपराधिक छवि के लोगोें पर चुनाव लड़ने से प्रतिबन्ध लगाने की एक याचिका सर्वोच्च न्यायालय में आयी तो उस पर कोई भी व्यवस्था देने से शीर्ष अदालत ने यह कह कर इन्कार कर दिया कि यह अधिकार केवल संसद के पास है। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने 2014 में ही देश से वायदा किया था कि वह संसद को अपराधियों से मुक्त करायेंगे। लेकिन इस दिशा में कोई सार्थक कदम उठाने की बजाये अपनी पार्टी में ही यह नही कर पाये हैं कि भाजपा ही किसी अपराधी को संसद या विधानसभाओं में अपना उम्मीदवार न बनाती। लेकिन ऐसा किया नही गया है।
इस परिप्रेक्षय में यदि इन चिन्ताओं का आकलन किया जाये तो जो अहम सवाल उभरकर सामने आते हैं कि जब इस शीर्ष पर बैठे हुए व्यक्ति ऐसा मान रहे है लेकिन इसे बदलने के लिये कुछ कर नही पा रहे हैं तो फिर इनके बाद ऐसा कौन है जिसके कुछ करने से यह स्थितियां बदलेंगी? अपराधियों को माननीय बनने से रोकने में शीर्ष अदालत ने दखल देने से इन्कार कर दिया है। प्रधानमन्त्री वायदा करके कोई कदम उठा नही पाये हैं। तो क्या यह मान लिया जाये कि सही में अराजकता की स्थिति बन गयी है या फिर शीर्ष पर बैठे यह लोग जानबूझ कर इसे बदलने का प्रयास नही कर रहे हैं यह दोनों ही स्थितियां घातक होंगी। क्योंकि इस सबका असर आम आदमी पर पड़ रहा है उसका विश्वास सारे स्थापित संस्थानों पर से उठता जा रहा है। चुनाव आयोग की विश्वसनीयता लगातार सन्देह के दायरे में चल रही है और अब इसी कड़ी में उच्च न्यायापालिका भी आ खड़ी हुई है।
ऐसे में जब प्रधानमन्त्री फिर एक राष्ट्र-एक चुनाव की बात करते हैं तो फिर यह सवाल खड़ा होता है कि यदि सही में प्रधानमन्त्री ऐसा मानते हैं तो उन्हे ऐसा करने से रोक कौन रहा है। इस समय जो कानून लागू हंै उसके अनुसार सारी विधानसभाओं और लोक सभा के चुनाव एक साथ नही करवाये जा सकते। क्योंकि वर्तमान नियमों के तहत किसी भी विधानसभा या केन्द्र में लोकसभा का कार्यकाल पांच वर्ष से आगे नही बढ़ाया जा सकता है। इस कार्यकाल को कम करके चुनाव तय समय से पहले करवाने की सिफारिश तो की जा सकती है कार्यकाल बढ़ाने की नही। इसके लिये अलग से संसद में एक नया अधिनियम लाना होगा। लेकिन यदि सही में यह मंशा हो कि स्थिति में सुधार लाना है तो उसके लिये सर्वोच्च न्यायालय में इस समय दो याचिकाएं लंबित हैं। इनमें एक याचिका में यह आग्रह किया गया है कि आगे आने वाले सभी चुनाव ईवीएम की बजाये बैलेट पेपर से करवाये जायें। सर्वोच्च न्यायालय ने 2013 में जब ईवीएम के साथ वीवीपैट जोड़ने का आदेश किया था तभी यह मान लिया था कि ईवीएम के परिणाम पूरी तरह विश्वसनीय नही है। इसलिये आज बैलेट पेपर से चुनाव करवाने की मांग को मान लिय जाना चाहिये। इसी के साथ आपराधियों के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने को शीर्ष अदालत संसद का अधिकार क्षेत्र करार दे चुकी है। प्रधानमन्त्री ने भी संसद को अपराधियों से मुक्त करवाने का वायदा देश से कर रखा है। अब इस वायदे को पूरा करने का समय आ गया है। अब जब प्रधानमन्त्री ने एक राष्ट्र एक चुनाव की बात फिर से दोहरायी है तब इसे अमली जामा पहनाने से पहले इन दो लंबित आग्रहों को कानूनों की शक्ल दे दी जानी चाहिये। यदि ऐसा हो जाता है तो इसी से बहुत सारी समस्याओं का समाधान हो जाता है। अन्यथा ऐसे सारे ब्यान चाहे वह किसी भी स्तर से आये हो केवल जनता का ध्यान भटकाने के प्रयास ही माने जायेंगे।