भारत को कृषि प्रधान देश माना जाता है। क्योंकि आज भी 70% जनसंख्या खेती पर निर्भर है। प्रधानमन्त्री ने किसानों की आय को 2023 तक दोगुणी करने का नारा दिया है। इसके लिये सरकार से तीन अधिनियम कृषि उपज को लेकर पारित किये हैं। संसद में जब यह विधेयक लाये गये थे तब इन पर कोई विस्तृत चर्चा नही हुई थी यह पूरा देश जानता है। संयुक्त राष्ट्र महासंघ के अनुसार जब भी कोई देश इस आशय का कोई कानून बनाने का प्रयास करेगा तो उसे वहां के किसान संगठनों से विचार विर्मश करके ही ऐसा करना होगा। भारत संयुक्त राष्ट्र महासंघ के इन प्रस्तावों पर अपनी सहमति दे चुका है और इस नाते इन्हे मानने के लिये वचनबद्ध है। परन्तु जब यह कानून पारित किये गये थे तब न तो इन पर संसद में चर्चा हुई और न ही संसद से बाहर किसान संगठनों से कोई मन्त्रणा की गयी। संभवतः इसी कारण से कनाड़ा, आमेरीका, ब्रिटेन और संयुक्त राष्ट्र संघ तक भारत के किसानों की मांगों को अप्रत्यक्षतः अपना समर्थन जता चुके है। शायद इसी समर्थन की प्रतिक्रिया में यहां का सत्ता पक्ष इसे चीन और पाकिस्तान से प्रेरित और समर्थित बता रहा है।
इस परिदृश्य में देशभर का किसान इन कानूनों के विरोध मे आन्दोलन की राह पर है। सरकार और किसानों में सारी बातचीत विफल हो चुकी है। किसान सरकार के किसी भी आश्वासन पर विश्वास करने को तैयार नही है। सरकार इन कानूनों को किसानों के हित में बता रही है और इसके लिये एक 106 ई पन्नों का दस्तावेज भी जारी किया गया है। इस दस्तावेज का स्त्रोत मीडिया रिपोर्ट को बताया गया है इसलिये इसमें दर्ज किये गये आंकड़ों की प्रमाणिकता पर कुछ नही कहा जा सकता। इसी दस्तावेज के साथ-साथ सरकार ने पूरे देश में कृषि कानूनों पर उठती शंकाओं और सवालों का जवाब देने के लिये पत्रकार वार्ताएं आदि आयोजित करने की भी घोषणा की है। सरकार के इन प्रयासो से स्पष्ट हो जाता है कि वह इन कानूनों को वापिस लेने के लिये कतई तैयार नही है। उधर किसान भी आन्दोलन से पीछे हटने को तैयार नही है। ऐसे में इस आन्दोलन का अंत क्या होगा यह कहना आसान नही होगा। कृषि का कानून शान्ता कुमार कमेटी की सिफारिशों का प्रतिफल हैं यह पिछले अंक मे कमेटी की सिफारिशों के साथ रखा जा चुका है। इसके बाद शान्ता कुमार का एक प्रैस ब्यान भी आया हैं इस ब्यान के संद्धर्भ में इन कानूनों के कुछ पक्षो पर अलग से चर्चा की जा रही है। इसलिये यहां एक अलग बिन्दु पर चर्चा उठाई जा रही है। किसान सरकार पर विश्वास करने को तैयार नही हैं। इसलिये यह देखना और समझना आवश्यक हो जाता है कि कौन से फैसले रहे है जिनके कारण यह अविश्वास की स्थिति पैदा हुई है। 2014 में जब मोदी सरकार ने सत्ता संभाली थी तब चुनावों से पहले अन्ना आन्दोलन के माध्यम से जिस भ्रष्टाचार को उजागर किया गया था उसमें सबसे बड़ा घोटाला 1,76,000 करोड़ का टू जी स्कैम था। इसमें डा. मनमोहन सिंह के कार्याकाल में कुछ गिरफ्तारियां भी हुई थी। सरकार बदलने के बाद इसे मुकाम तक पहुंचाना मोदी सरकार का काम था। लेकिन इस सरकार के समय में अदालत में यह रखा गया कि यह घपला हुआ ही नही है। इसमें गणना करने में भूल हुई है। जिस विनोद राय ने गणना करके 1,76,000 करोड़ का आंकड़ा दिया था उससे मोदी सरकार ने एक सवाल तक नही पूछा और एक बड़ी जिम्मेदारी से उसे नवाज़ा गया। इससे पाठक स्वयं अन्दाजा लगा सकते हैं कि यह क्या था। इसी के साथ दूसरा बड़ा सवाल यह है कि 2014 में बैंकों में हर तरह के जमा पर जो ब्याज़ मिलता था आज 2020 में वह उसके आधे से भी कम हो गया है क्यों? क्या इस पर सवाल नही पूछा जाना चाहिये? क्या इससे हर आदमी प्रभावित नही हुआ है? क्या ऐसा करने का कोई चुनावी वायदा किया गया था? इस दौरान जो जीरो बैलेन्स के नाम पर बैंकों में खाते खुलवाये गये थे इनमें अब न्यूनतम बैलेन्स न रहने पर जुर्माने का प्रावधान है। डाकघरों में भी न्यूनतम बैलेन्स 500 न रहने पर सौ रूपये जुर्माने का प्रावधान कर दिया गया है। इस तरह हजारों करोड़ रूपया देश के आम गरीब आदमी का अनिवार्यतः बैंको के पास आ गया है। खाता धारक इस न्यूनतम बैलेन्स का अपने लिये कोई उपयोग नही कर सकता है यह पैसा एक बड़े औद्योगिक घराने को सहज में ही निवेश के लिये उपलब्ध हो गया। वहां से यह पैसा वापिस आ पायेगा या एनपीए हो जायेगा इसका ज्ञान उस खाताधारक को कभी नही हो सकेगा जिसका यह पैसा है। ऐसे में क्या इस नीति को आम आदमी के हित में कहा जा सकता है शायद नही। लेकिन नीति तो बना दी गयी। इस तरह आम आदमी की राहत के लिये उज्जवला जैसी जितनी भी योजनाएं बनाई गयी हैं उनका असली लाभकारी अन्त में एक बड़ा घराना ही निकलता है। जिसको योजना के नाम पर एक बड़ा और सुनिश्चित बाज़ार उपलबध हो जाता है। लेकिन ऐसी किसी भी योजना की घोषणा किसी भी चुनाव घोषणा पत्र में जो नही की गयी है।
आज बैंकिंग क्षेत्र में प्राईवेट सैक्टर के लिये दरवाज़े खोल दिये गये है। आरबीआई ने भी इसके लिये हरी झण्डी दे दी है। जबकि दूसरी ओर सहकारी क्षेत्र के कई बैंक डूब चुके हैं और बहुत सारे दूसरे बैंक डूबने के मुकाम पर पहंुच चुके हैं इसके लिये कभी भी ससंद से लेकर किसी अन्य मंच तक कोई चर्चा नही उठाई गयी है। न ही किसी चुनाव में यह घोषणा की गयी कि सरकार भविष्य में ऐसी कोई नीति लाने जा रही है। ऐसी कई नीतियां है जिन्हे बिना किसी पूर्व सूचना के लाकर जनता पर लागू कर दिया गया है और इन योजनाओं का अन्तिम लाभकारी परोक्ष/अपरोक्ष में कोई बड़ा घराना ही निकलता है। इसलिये आज इन कृषि कानूनों का भी अन्तिम लाभकारी कोई अंबानी-अदानी ही निकलेगा यह आशंका आम किसान में पक्का घर कर चुकी है। इसी कारण से किसान सरकार पर अपना विश्वास बनाने के लिये इन कानूनों को वापिस लेने के अतिरिक्त कोई विकल्प नही बचा है।