क्या मौद्रीकरण के दावों पर विश्वास किया जा सकता है

Created on Wednesday, 01 September 2021 05:55
Written by Shail Samachar

मोदी सरकार राष्ट्रीय उच्च मार्गों, रेलवे संपत्तियों, बिजली की ट्रांसमिशन लाईनो और हाइड्रो, सोलर तथा पवन विद्युत परियोजनाओं का मौद्रीकरण करके छः लाख करोड़ जुटाने का प्रयास कर रही है। इसके लिये वित्त मन्त्रा सीतारमण ने एनएमपी योजना की घोषणा की है और इसके लिये कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में एक सचिव कमेटी का गठन किया गया है। वित्त मन्त्रा ने कहा है कि इसके लिये इन संपत्तियों की ज़मीन नहीं बेची जायेगी। बल्कि इसके तहत इन संपत्तियों का पूर्ण मौद्रिक उपयोग सुनिश्चित किया जायेगा। इसके लिये प्राईवेट सैक्टर का सहयोग लिया जायेगा। इसमें 90,000 कि.मी. राष्ट्रीय उच्च मार्गों से 1.6 लाख करोड़, 400 रेलवे स्टेशनों, 150 ट्रेनो और अन्य रेलवे संपतियों से 1.5 लाख करोड़, 67000 करोड़ ट्रांसमिशन लाईनों, 32,000 करोड़ एनएचपीसी, एनटीपीसी और नवेली लिंगनाइट विद्युत परियोजनाओं से जुटाया जायेगा। इसके अतिरिक्त दिल्ली स्थित नेशनल स्टेडियम तथा सार्वजनिक उपक्रमों के रैस्ट हॉऊसों को भी मौद्रीकरण में शामिल किया गया है। विपक्ष इसे इन संपत्तियों को प्राईवेट सैक्टर को बेचना करार दे रहा है। विपक्ष के इस आरोप के जवाब में सरकार ने कहा है कि प्राईवेट सैक्टर को केवल चार वर्ष के लिये ही यह संपत्तियां दी जा रही हैं और उसके बाद इन्हें वापिस ले लिया जायेगा।
सरकार के आश्वासन और विपक्ष के आरोप के परिप्रेक्ष में मौद्रीकरण की नीति और देश की आर्थिक स्थिति को समझना आवश्यक हो जाता है। मानेटरी पॉलिसी हर देश का केन्द्रिय बैंक लाता है। इस नाते इसकी घोषणा आरबीआई को करनी चाहिये थी परन्तु यह घोषणा वित्त मन्त्री के माध्यम से आयी है। मानेटरी पॉलिसी वह प्रक्रिया है जिसके तहत केन्द्रिय बैंक अर्थव्यवस्था में पैसे की आपूर्ति का प्रबन्ध करता है। इसके माध्यम से कीमतों और ग्रोथ में स्थिरता बनाये रखने का प्रयास किया जाता है। इसमें प्राईवेट सैक्टर का सहयोग लिया जाता है और इसका प्रभाव कर्ज के मंहगा होने तथा ब्याजदरों पर पड़ता है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक हो जाता है कि ऐसे क्या कारण हो गये कि अर्थव्यवस्था में पैसे की आपूर्ति करने के लिये सरकारी संपत्तियों का इस तरह मौद्रीकरण करने की अनिवार्यता आ खड़ी हुई है। क्या इन संपत्तियों से इस समय सरकार को आमदन नहीं हो रही थी? क्या इन संपत्तियों से छः लाख करोड़ जुटा कर अर्थव्यवस्था में डालने से यह संकट हमेशा के लिये टल जायेगा? जब प्राईवेट सैक्टर इनमें निवेश करके सरकार को भी छः लाख करोड़ देगा और अपने लिये भी निश्चित लाभ कमायेगा तो क्या इसका असर उपभोक्ता पर नहीं पड़ेगा? क्या इससे सड़क और रेल दोनों से यात्रा करना स्वभाविक रूप से ही मंहगा नहीं हो जायेगा। जब ट्रांसमिशन लाईने और विद्युत परियोजनाएं दोनो ही प्राईवेट के पास चली जायेंगी तो क्या यह सबकुछ और मंहगा नहीं होगा। क्या सरकार द्वारा इस नीति को मौद्रीकरण का नाम देने से इनकी मंहगाई का असर आम आदमी पर नहीं पड़ेगा। फिर जब चार वर्ष के लिये ही इन संपत्तियों को प्राईवेट सैक्टर को देने की बात की जा रही है तो यह सैक्टर इन्हे सुधारने के लिये इनमें निवेश ही क्यों करेगा?
मोदी सरकार ने जब 2014 में सत्ता संभाली थी उस समय मार्च 2014 में केन्द्र सरकार का कुल कर्ज 53.11 लाख करोड़ था। यह कर्ज आज बढ़कर 101.3 करोड़ हो गया है। जिस अनुपात में सरकार का कर्ज बढ़ा है क्या उसी अनुपात में राजस्व में भी बढ़ौत्तरी हुई है? शायद नहीं। फिर क्या सवाल नहीं पूछा जाना चाहिये कि यह कर्ज कहां निवेश किया गया? 2014 से 2021 तक मंहगाई और बेरोज़गारी ने सारे रिकार्ड तोड़ डाले हैं। पैट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतों का बढ़ना क्या किसी भी तर्क से जायज ठहराया जा सकता है? शायद नहीं। क्योंकि इस दौरान ऐसी कोई आपदा नहीं आयी है जिससे आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन में कोई कमी आयी हो। कोरोना को लेकर भी आज जो स्थिति सरकार के फैसलों के कारण खड़ी हुई है उसमें भी अब बिमारी से ज्यादा राजनीति की गंध आनी शुरू हो गयी है। जिस ढंग से मौद्रीकरण के नाम पर सार्वजनिक संपत्तियों को प्राईवेट हाथों में सौंपने का ताना बाना बुना गया है उसका असर बहुत जल्द मंहगाई और बेरोज़गारी की बढ़ौत्तरी के रूप में सामने आयेगा यह तय है। उस समय आम आदमी कितनी देर शांत होकर बैठा रहेगा यह कहना कठिन है क्योंकि यह कोई भी मानने को तैयार नहीं है कि कोई भी आदमी केवल चार वर्ष के लिये निवेश करके आपकी संपत्ति की दशा-दिशा सुधारकर उसे आपको वापिस कर देगा।