स्वर्ण जयन्ती और जवाब मांगते कुछ सवाल

Created on Monday, 20 September 2021 10:54
Written by Shail Samachar

1948 में 31 पहाड़ी रियासतों का विलय से बने हिमाचल प्रदेश में 1966 पंजाब के पहाड़ी हिस्से मिलने के बाद 1971 में प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा हासिल हुआ था और आज इस उपलक्ष पर स्वर्ण जयन्ती समारोहों का आयोजन किया जा रहा है। इन समारोहों का आगाज प्रदेश विधानसभा का विशेष सत्रा बुलाकर किया गया। इन आयोजनों को महामहिम राष्ट्रपति से लेकर प्रदेश के राज्यपाल विधानसभा अध्यक्ष, केन्द्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री तथा नेता प्रतिपक्ष तक सभी ने संबोधित किया। सभी ने प्रदेश में हुए विकास की सराहना की और अपने पूर्ववर्तीयों के योगदान को रेखांकित किया है। इस अवसर पर प्रदेश के सभी सांसद और विधायक भी आमंत्रित थे। यह आयोजन एक महत्वपूर्ण अवसर था और इस अवसर पर यदि विकास को लेकर एक आत्म निरीक्षण हो जाता तो शायद यह आयोजन भविष्य के लिये एक मील का पत्थर बन जाता। क्योंकि सरकारें विकास करने के लिये ही बनाई जाती हैं। विकास के हर कार्य से यह अपेक्षा की जाती है कि उससे आने वाली पीढ़ीयों का मार्ग आसान हो जायेगा। इसके लिये इस विकास का आकलन आज के संद्धर्भों में किया जाता है। इस आकलन से यह तय किया जाता है कि जिस लाईन पर पूर्व में विकास हुआ है उसी पर आगे बढ़ते रहना है या उसमें नीतिगत बदलाव करने की आवश्यकता है।
रोटी, कपड़ा और मकान हर व्यक्ति की मूल आवश्यकताएं होती हैं। अब इन में शिक्षा और स्वास्थ्य भी जरूरी आवश्यकताओं में जुड़ गयी हैं। सभी नागरिकों को यह सुविधायें आसानी से और एक जैसी गुणवता की उपलब्ध हो रही हैं तथा इनको हासिल करने की क्रय शक्ति सभी की एक समान बढ़ी है यह सुनिश्चित करना सरकार का दायित्व तथा विकास का लक्ष्य होता है। यदि इन मानको पर कोई शासन व्यवस्था पूरी नही उतरती है तब उसकी नीतियों को लेकर सवाल उठने शुरू हो जाते हैं और ऐसे विकास को एक पक्षीय माना जाता है। इस सबकी परख संकट के समय में होती है। आज महामारी के संकट ने इस आकलन की ऐसी आवश्यकता और परिस्थिति लाकर खड़ी कर दी है जिसे कोई चाह कर भी नजर अन्दाज नही कर सकता है। महामारी के इस संकट काल में करोड़ो लोग ऐसे सामने आये हैं जिन्हें इन सुविधाओं की कमी आयी और न्यायपालिका को इसमें दखल देना पड़ा। कोई भी राज्य सरकार इससे अछूती नही रही है। ऐसे में जब इस तरह के समारोहों के अवसर आते हैं तब सभी संबद्ध पक्षों को जिसमें आम नागरिक से लेकर व्यवस्था के लिये उत्तरदायी चेहरों को एक सार्वजनिक संवाद स्थापित करके खुले मन से बिना किसी पूर्वाग्रह के एक चर्चा करनी चहिये थी जो हो नही सकी है।
आज प्रदेश के संद्धर्भ में इस चर्चा को लेकर कुछ सवाल उठने आवश्यक हो जाते हैं। 1948 से लेकर आज 2021 तक के सफर पर जब नजर जाती है तब पगडण्डीयों से शुरू हुई यह यात्रा जब महामार्गां तक पहुंच जाती है तो विकास का एक अहसास स्वतः ही हो जाता है। जब जिले में ही एक स्कूल होता था और आज हर पंचायत में ही दो-दो तीन-तीन विद्यालय हो गये हैं। हर पंचायत में कोई न कोई स्वास्थ्य संस्थान उपलब्ध है। हर घर में बिजली का बल्ब जलता है और हर गांव सड़क से जुड़ चुका है। विश्वविद्यालय और मैडिकल कालेज तक प्रदेश में उपलब्ध हैं। बड़ी बड़ी जल विद्युत परियोजनायें और बडे़ बड़े सीमेंट उद्योग सब कुछ प्रदेश में उपलब्ध हैं। लेकिन क्या ये सारी उपलब्धताएं उपलब्ध होने के बावजूद प्रदेश के आम नागरिक का जीवन आसान हो पाया है? क्या यह सारी उपलब्धताएं हासिल करने की समर्थता उसमें आ पायी है? बड़े उद्योग और उसमें बड़ा निवेश आने से राज्य के जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा तो बढ़ गया है पर इससे गरीबी की रेखा से भी नीचे रहने वालों का आंकड़ा समाप्त हो पाया है? क्या इससे सारे शिक्षण संस्थानों में सभी विषयों के अध्यापक उपलब्ध हो पायें हैं? क्या सारे स्वास्थ्य संस्थानों में पूरे डाक्टर और दूसरा स्टाफ उपलब्ध हो पाया है? क्या प्रदेश में ही पैदा होने वाला सीमेंट यहीं पर सबसे महंगा नही मिल रहा है? प्रदेश को बिजली राज्य का दर्जा हासिल होने के बावजूद बेरोजगारों का आंकड़ा क्यों बढ़ रहा है? ऐसे दर्जनों सवाल है जिन पर स्वर्ण जयन्ती पर चर्चा होनी चाहिये थी।
प्रदेश के इस विकास से जो कर्जभार बढ़ा है क्या उससे प्रदेश कभी बाहर आ पायेगा? प्रदेश में सारा सार्वजनिक क्षेत्र 1974 और उसक बाद स्थापित हुआ था। इसमें वित निगम जैसा संस्थान ही बन्द हो गया है। जिस सरकार का वित निगम ही बन्द हो जाये वहां के औद्योगिक विकास को कैसे आंका जाये ? प्रदेश पर 1980 तक शायद कोई कर्ज नही था ऐसा 1998 में आये श्वेत पत्र में दर्ज है। फिर चालीस वर्षों में ही यह कर्ज 70 हजार करोड़ पहुंच जाये तो क्या प्रदेश के कर्णधारों से यह सवाल नही पूछा जाना चाहिये की यह निवेश कहां हुआ है? क्योंकि यदि इसी गति से यह कर्ज बढ़ता रहा तो तो एक दिन सचिवालय का खर्च उठाना भी संभव नही रह जायेगा। इसका जबाव दूसरों के आंकड़ों की तुलना से नही वरन् अपनी क्षमता के ईमानदार आकलन से देना होगा।