अभी कमर्शियल रसोई गैस के दामों में फिर बढ़ौतरी हुई है। इसका असर पूरे बाजार पर पड़ेगा। इस महंगाई के साथ ही बेरोजगारी बढ़ रही है। अभी मार्च में आयी सी एम आई ई की रिपोर्ट से यह सामने आ चुका है। वह सारे सार्वजनिक प्रतिष्ठान विनिवेश के नाम पर निजी क्षेत्र के हवाले हो चुके हैं। जिनमें रोजगार के अवसर बढ़ने भी थे और भरे भी जाने थे। अब स्थिति यह हो गयी है कि सेना में भी कुछ अरसे से भर्ती बंद है। सेना में इस समय शायद एक लाख बाईस हजार से ज्यादा पद रिक्त चल रहे हैं लेकिन इसके बावजूद भर्ती नहीं हो रही है। जबकि सैनिक स्कूल प्राइवेट सैक्टर को भी दे रखे हैं और उसमें आर एस एस का नाम प्रमुख है। बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी पर सरकार का ध्यान जाना शायद प्राथमिकता नहीं रह गया है। लेकिन इसी के साथ जब हिंसा और कोरोना का भी बढ़ना शुरू हो जाये तो सारे परिदृश्य को एक साथ जोड़ कर देखने से जो तस्वीर उभरती है वह किसी के लिए भी भयावह हो सकती है। जातीय और धार्मिक आधारों पर उभरी हिंसा जब एक वैचारिकता का चोला ओढ़ लेती है तब उस पर नियंत्रण कर पाना असंभव हो जाता है।
इस बार रामनवमी और हनुमान जयंती के अवसरों पर उभरी हिंसा जिस तरह से जहांगीरपुरी से अलवर तक ट्रैवल कर गयी वह अपने में बहुत कुछ संदेश दे जाती है। क्योंकि इन दोनों घटनाओं में व्यवहारिक रूप से कोई संबंध नहीं था फिर एक न्यूज़ चैनल न्यूज़ 18 ने इसमें संबंध जोड़ा वह एक गंभीर सवाल बन जाता है। इसी तर्ज पर अयोध्या में भी कुछ नियोजित किया जा रहा था जिसे पुलिस ने समय रहते गिरफ्तारियां करके रोक लिया। इस हिंसा पर नियंत्रण पाने के लिये जिस तरह से बुलडोजर चलाने का प्रयास किया गया उससे एक अलग ही तस्वीर उभरती है। सर्वाेच्च न्यायालय ने जब इस बुलडोजर न्याय पर सवाल उठाते हुए रोक लगाई तब से सोशल मीडिया के कुछ मंचों पर सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ जिस तरह की बहस छेड़ दी गयी है वह अपने में बहुत घातक प्रमाणित होगी। क्योंकि इस बहस में नियम कानून और संविधान की जगह बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक का तर्क बढ़ाया जा रहा है। देश के संविधान के स्थान पर बहुसंख्यक की मान्यताओं को अधिमान देने का प्रयास किया जा रहा है।
इस बहस में जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट को निशाने पर लिया जा रहा है उसमें यहां तक कहा गया कि ‘‘यह सुप्रीम कोर्ट है या अराजकता फैलाने और भारतवर्ष का इस्लामीकरण करने का एक जरिया’’ हिमाचल हैवन साइट पर एक ओंकार सिंह की यह पोस्ट अपने में जो कुछ कह जाती है उससे यह संकेत उभरते हैं कि संविधान के वर्तमान स्वरूप में एक जबरदस्त बदलाव का माहौल तैयार किया जा रहा है। इस पोस्ट से दिसंबर 2018 में मेघालय उच्च न्यायालय के न्यायाधीश संदीप रंजन सेन के ‘‘हिंदू राष्ट्र’’ के फैसले की याद ताजा हो जाती है। इसी फैसले के बाद संघ प्रमुख डॉ. भागवत के नाम से ‘‘भारत का नया संविधान’’ के कुछ अंश वायरल होकर बाहर आये थे। इस कथित संविधान के वायरल हुये मसौदे पर न तो भारत सरकार और न ही संघ मुख्यालय से कोई प्रतिक्रियाएं नही आयी हैं। फिर अभी हरिद्वार में जब संघ प्रमुख ने देश को पन्द्रह वर्षों में अखण्ड भारत बनाने का संकल्प लिया और स्पष्ट कहा कि इसमें आने वाली हर बाधा को नष्ट कर दिया जायेगा तो बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है। इसी संकल्प की घोषणा के बाद राम नवमी और हनुमान जयंती के अवसरों पर संयोगवश हिंसक वातावरण देखने को मिला है। पंजाब के पटियाला में भी शिव सैनिकों और कथित खालिस्तान समर्थकों में झगड़ा इसी के बाद सामने आया है।
इस कथित धार्मिक उन्माद में प्रशासन की भूमिका तटस्थता की होती जा रही है। जिसका अर्थ है कि इन तत्वों को अपरोक्ष में राजनीतिक संरक्षण हासिल है। राजनीतिक दल इस पर चुप्पी साधे बैठे हैं। जनता को इस हिंसा के साथ ही फिर से कोरोना के प्रकोप का भय दिखाया जाने लगा है। इसी भय और चुप्पी के कारण महंगाई और बेरोजगारी जैसे आर्थिक सवाल गौण होते जा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट सार्वजनिक हित केे आये मामलों को प्राथमिकता के आधार पर निपटा नहीं रहा है। जबकि ईवीएम, राफेल और पेगासैस जैसे संवेदनशील मामलों को तुरंत निपटाने की आवश्यकता है। इस सारे परिदृश्य को एक साथ रख कर देखने से यह आवश्यक हो जाता है कि इस पर सार्वजनिक बहस शुरू की जाये।