प्रधानमंत्री और केंद्रीय एजैन्सियों के सहारे चुनाव जीतने की रणनीति

Created on Tuesday, 18 October 2022 17:56
Written by Shail Samachar

हिमाचल और गुजरात विधानसभा का कार्यकाल समाप्त होने में करीब एक माह का अंतराल है। अब तक यह प्रथा रही है कि जिन राज्यों की विधानसभाओं का छः माह के भीतर कार्यकाल समाप्त हो रहा होता है उनके चुनावों की घोषणा चुनाव आयोग एक साथ करता रहा है। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ है। बल्कि हिमाचल चुनाव के लिये भी जो तारीखें घोषित हुई हैं उनके मुताबिक चुनाव प्रचार के लिये दिये गये समय से मतदान और परिणाम के बीच रखे गये अंतराल का समय बहुत अधिक है। प्रचार के लिये कम समय दिये जाने का प्रभाव छोटे दलों और निर्दलीयों पर पड़ेगा। इस पर कुछ दलों ने चुनाव आयोग को पत्र भी लिखा है। चुनाव आयोग के इस आचरण को कुछ लोग सत्तारूढ़ दल के दबाव के तौर पर देख रहे हैं। मतदान और परिणाम के बीच रखे गये लम्बे अंतराल को कुछ लोग ईवीएम से छेड़छाड़ की आशंकाओं की संभावनाओं के साथ ही जोड़ कर देख रहे हैं। यह आशंकायें कितनी सही निकलती है और हिमाचल के चुनाव परिणामों का असर गुजरात पर कितना पड़ेगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन विश्लेषकों के लिए ऐसी स्थिति पहली बार सामने आयी है।
हिमाचल में पीछे हुए विधानसभा के मानसून सत्र के बाद जयराम सरकार ने विभिन्न योजनाओं के लाभार्थियों के सम्मेलन किये हैं। हर सप्ताह मंत्रिमण्डल की बैठक करके प्रदेश भर में करोड़ों की योजनाएं घोषित की हैं। मुख्यमंत्री की इन जनसभाओं के बाद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने भी कार्यकर्ताओं और जनता का मन टटोलने का प्रयास किया है। क्योंकि जयराम के राजनीतिक संरक्षक के रूप में नड्डा का नाम ही सबसे पहले आता रहा है। आज नड्डा जयराम बनाम धूमल खेमे में भाजपा पूरी तरह बंटी हुई है यह सब जानते हैं। बल्कि इसी खेमे बाजी का परिणाम है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भी पांच जिलों में जनसभाएं आयोजित की गयी। चम्बा की सभा के लिये जो पोस्टर लगे थे उनमें राज्यसभा सांसद इन्दु गोस्वामी का फोटो नही था। इसकी जानकारी जब दिल्ली पहुंची तब रातों-रात इन्दु के फोटो वाले पोस्टर लगे।
प्रधानमंत्री के बाद गृह मंत्री अमित शाह की रैली भी सिरमौर में आयोजित की गयी। अब चुनाव प्रचार के दौरान भी प्रधानमंत्री की आधा दर्जन सभाएं करवाये जाने की योजना है।
प्रधानमंत्री की सभाओं और चुनाव आयोग की पुरानी प्रथा से हटने को यदि एक साथ जोड़ कर देखा जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि इस चुनाव में प्रदेश में केंद्रीय एजेंसियों और केंद्रीय नेतृत्व की भूमिका केंद्रीय होने जा रही है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि प्रदेश का यह चुनाव भी प्रधानमंत्री के चेहरे पर ही लड़ा जायेगा। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि इस समय प्रधानमंत्री और उनकी सरकार सर्वाेच्च न्यायालय में नोटबंदी तथा चुनावी बाँडस के मुद्दों पर जिस तरह सवालों के घेरे में घिरती जा रही है उसे विपक्ष कितनी सफलता के साथ प्रदेश की जनता के बीच रख पाता है। क्योंकि यह तय है कि खेमों में बंटी प्रदेश भाजपा के किसी भी नेता के नाम पर चुनाव लड़ने का जोखिम केंद्रीय नेतृत्व नहीं उठाना चाहता है।