हिमाचल प्रदेश इस समय गंभीर वित्तीय संकट से गुजर रहा है संकट की गंभीरता का इसी से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि आधा दर्जन निगमों/बोर्डो के कर्मचारियों को इस माह समय पर वेतन का भुगतान नहीं हो सका है। प्रदेश की वर्तमान वित्तीय स्थिति के जानकारों के मुताबिक आने वाले दिनों में यह संकट और गहरा जायेगा। मुख्यमंत्री ने संकट के लिये पूर्ववर्ती पिछले चालीस वर्षों की सरकारों को जिम्मेदार ठहराते हुए केन्द्र पर भी आक्षेप किया है कि उसने सरकार के कर्ज लेने की सीमा में कटौती करके यह हालत पैदा कर दिये हैं। मुख्यमंत्री का यह सब कहना कितना सही है इस पर विस्तार से कई दिनों तक बहस की जा सकती है। लेकिन इस समय का सबसे बड़ा प्रश्न यह बनता जा रहा है कि इस संकट का अंतिम परिणाम क्या होगा और इसका समाधान क्या है। यह एक सामान्य स्थापित सच है कि जब एक परिवार की वित्तीय स्थिति गड़बड़ा जाती है तो उसे सुधारने के लिये परिवार से ही शुरुआत करनी पड़ती है। परिवार के अनावश्यक खर्चों में कटौती करके प्राथमिकताओं को भी नये सिरे से परिभाषित करना पड़ता है। परिवार की तर्ज पर ही राज्य का शासन प्रशासन चला करता है।
इस समय सरकार के अनावश्यक खर्चो और प्राथमिकताओं पर चर्चा करने से पहले कुछ तथ्यों पर विचार करना आवश्यक हो जाता है क्योंकि सरकार का कर्ज भार एक लाख करोड़ तक पहुंच चुका है। 2016 में जब कर्मचारियों के वेतनमान में संशोधन किया गया था तब उसके फलस्वरूप अर्जित हुआ एरियर भी आज तक नहीं दिया जा सका है। एक समय यह प्रदेश नौकरी देने वालों में सिक्कम के बाद देश का दूसरा बड़ा राज्य बन गया था। तब कर्मचारियों की संख्या में कटौती करने के कदम उठाये गये थे। इसके लिए दीपक सानन की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन हुआ था। लेकिन आज प्रदेश बेरोजगारी के लिये देश के छः राज्यों की सूची में आ गया है। इस प्रदेश को एक समय बिजली राज्य की संज्ञा देते हुये यह दावा किया गया था कि अकेले बिजली उत्पादन से ही प्रदेश की वितीय आवश्यकताएं पूरी हो जायेंगी। बिजली के नाम पर ही उद्योगों को आमन्त्रित किया गया था। लेकिन आज हिमाचल का प्राइवेट क्षेत्र लोगों को सरकार के बराबर रोजगार उपलब्ध नहीं करवा पाया है। प्राइवेट क्षेत्र को जितनी सब्सिडी सरकार दे चुकी है उसके ब्याज के बराबर भी प्राइवेट क्षेत्र सरकार को राजस्व नहीं दे पाया है। आज जो कर्ज भार प्रदेश पर है उसका बड़ा हिस्सा तो प्राइवेट सैक्टर को आधारभूत ढांचा उपलब्ध करवाने में ही निवेशित हुआ है। लेकिन उद्योगों के सहारे किये गये दावों से हकीकत में प्रदेश के आम आदमी को बहुत कुछ नहीं मिल पाया है। इसलिये उद्योगों से उम्मीद करने से पहले उद्योग नीति पर नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता है।
पिछले चालीस वर्षों में शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में जितना संख्यात्मक विकास प्रदेश में हुआ है उसमें यदि और आंकड़े न जोड़कर इन संस्थानों में गुणात्मक सुधार लाने का प्रयास किया जाये तो उसकी आवश्यकता है न कि बिना अध्यापक के स्कूल और बिना डॉक्टर के अस्पताल की। आज लोगों को मुफ्त बिजली का प्रलोभन देने के बजाये बिजली सस्ती करके सबको उसका बिल भरने योग्य बनाना आवश्यक है। जो गारंटीयां सरकार पूरी करने का प्रयास और दावा कर रही है क्या वह सब कर्ज लेकर किया जाना चाहिये। शायद नहीं। आज गांवों में हर परिवार को डिपों के सस्ते राशन पर आश्रित कर दिया गया है और सस्ते राशन की कीमत कर लेकर चुकाई जा रही है। आज यदि सर्वे किया जाये तो गावों में 80% से ज्यादा खेत बंजर पड़े हुए हैं। इस समय मुफ्ती की मानसिकता को सस्ती में बदलने की आवश्यकता है। यदि दो-तीन वर्ष बजट में नयी घोषणाएं करने के बजाये पुरानी की व्यवहारिकता को परख उसे पूरा करने की मानसिकता सरकार की बन जाये तो बहुत सारी समस्याएं स्वतः ही हल हो जाती हैं। कर्ज लेने की बजाये भारत सरकार की तर्ज पर संपत्तियों के मौद्रीकरण पर विचार किया जाना चाहिये। इसके लिए एक समय पंचायतों से जानकारी मांगी गयी थी उस पर काम किया जाना चाहिये।