सुक्खू सरकार ने दिसम्बर 2022 में प्रदेश की सत्ता संभाली थी। सत्ता संभालते ही प्रदेश की वित्तीय स्थिति पर जनता को चेतावनी दी थी की हालत कभी भी श्रीलंका जैसे हो सकते हैं। इस चेतावनी के बाद पहले कदम के रूप में पिछली सरकार द्वारा अंतिम छः माह में लिये गये फैसले पलट दिये थे। पेट्रोल-डीजल पर वैट बढ़ाया। नगर निगम क्षेत्र में पानी गारबेज के रेट बढ़ाये। सरकार और मुख्यमंत्री को राय देने के लिए मुख्य संसदीय सचिवों, सलाहकारों और विशेष कार्याधिकारियों की टीम खड़ी की। सेवानिवृत नौकरशाहों की सेवाएं ली। सरकार पर उठते सवालों को व्यवस्था परिवर्तन के सूत्र से शान्त करवा दिया। कर्ज लेने के जुगाड़ लगाये और हर माह करीब हजार करोड़ का कर्ज लेने की व्यवस्था कर ली। यह सब कर लेने के बाद अब पन्द्रह अगस्त को साधन संपन्न लोगों से प्रदेश को आत्मनिर्भर बनाने के लिये हर तरह की सब्सिडी त्यागने का आग्रह किया है। सरकार के घोषित/अघोषित सलाहकारों ने जन सुविधाओं पर अब तक चलाई गई कैंची को सधे हुए कदम करार देकर इसकी सराहना की है। कांग्रेस के अन्दर जो स्वर कल तक कार्यकर्ताओं की अनदेखी पर मुखर होते थे अब इस संद्धर्भ में एकदम चुप हैं। साधन संपन्नता की परिभाषा पचास हजार वार्षिक आय कर दी है। आज गांव में मनरेगा के तहत मजदूरी करने वाला भी इस आय वर्ग में आ जाता है। जिस सरकार को राजस्व बढ़ाने के लिये इस तरह के फैसले लेने पड़ जायें और उपाय सुझाने के लिए एक मंत्री स्तरीय कमेटी गठित हो उसके चिन्तन और चिन्ता का अंदाजा लगाया जा सकता है। सरकार सत्ता में है और उसे कार्यकाल तक सहना ही पड़ेगा।
सरकार के इन उपायों पर सवाल उठाने का कोई लाभ नहीं है। क्योंकि ऐसे फैसले राजनीतिक समझदारी से ज्यादा प्रशासनिक तंत्र की प्रभावी भूमिका की झलक प्रदान करते हैं। इन फैसलों की कीमत आने वाले वक्त में जनता और सत्ताधारी दल को उठानी पड़ेगी प्रशासनिक तंत्र को नहीं। यह फैसले उस समय स्वतः ही बौने हो जाते हैं जब सरकार पर उठने वाले भ्रष्टाचार के आरोपों का आकार इनसे कहीं बड़ा हो जाता है। नादौन में ई-बस स्टैंड के लिये 6,82,04 520/- रुपए में खरीदी गयी जमीन के दस्तावेज इसका बहुत बड़ा प्रमाण है। भ्रष्टाचार के इस मामले पर प्रशासनिक तंत्र राजनीतिक नेतृत्व और विपक्ष सब एक बराबर जिम्मेदार हैं। ऐसे में राजस्व आय बढ़ाने के लिये जनता की सुविधाओं पर कैंची चलाकर किये गये उपायों की विश्वसनीयता क्या और कितनी होगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। प्रदेश को बिजली राज्य बनाने की योजनाओं का आज कितना लाभ मिल रहा है? यही सवाल पर्यटन राज्य बनाने की योजनाओं पर है? पूरी उद्योग नीति पर उस समय स्वतः ही सवाल उठ जाते हैं जब यह सामने आता है कि उद्योगों की भेंट प्रदेश की वित्त निगम, खादी बोर्ड, एक्सपोर्ट निगम और एग्रो पैकेजिंग आदि कई निगमें भेंट चढ़ चुकी है और कई कगार पर खड़ी हैं।
हिमाचल को आत्मनिर्भर बनाने के लिये यहां की कृषि और बागवानी तथा वन संपदा को बढ़ाने की आवश्यकता है। लेकिन इस और ध्यान दिया ही नहीं गया। स्व. डॉ. परमार की त्रीमुखी वन खेती की अवधारणा शायद आज के राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र के लिए एक पहेली होगी। इसी अवधारणा को मजबूत आधार प्रदान करने कृषि और बागवानी विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई थी। इन विश्वविद्यालयों के अनुसंधान को खेत तक ले जाने का प्रयास सरकारों ने नहीं किया क्योंकि प्रशासन को मेहनत करनी पढ़नी थी। बागवानी विश्वविद्यालय ने एक अनुसंधान में यह दावा किया था कि इससे प्रदेश की आर्थिकी में पांच हजार करोड़ का बढ़ावा होगा। जिस पर कोई कदम नहीं उठाये गये। ऐसे ही कई अनुसंधान कृषि विश्वविद्यालय के रहे हैं। प्रदेश में जियोट्राफा के उत्पादन से डीजल तैयार करने की तीस करोड़ की योजना केंद्र से मिली थी। ऊना, हमीरपुर, बिलासपुर, सोलन और सिरमौर के निचले क्षेत्र शामिल किये गये थे। ऊना में कुछ लोगों की निजी भूमि पर भी जियोट्रोफा की खेती कर दी गयी। यदि उस योजना पर ईमानदारी से अमल किया जाता तो उसी से प्रदेश का नक्शा बदल जाता। लेकिन इसमें ठेकेदारी और कमीशन की कोई गुंजाइश नहीं थी। इसलिये शुरू होते ही इसका गला घोंट दिया गया। विधानसभा में इस पर आये सवालों पर चुप्पी साध ली गयी। इस योजना का जिक्र इसलिये कर रहा हूं ताकि आज नेतृत्व भविष्य के नाम पर वर्तमान को गिरवी रखने की मानसिकता से बाहर निकल कर ईमानदारी से प्रदेश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए कृषि और बागवानी विश्वविद्यालयों में अनुसंधान को बढ़ावा देकर उसे खेत तक ले जाने का ईमानदारी से प्रयास करे। यदि कृषि विश्वविद्यालय की जमीन पर टूरिज्म विलेज बसाने का प्रयास किया जायेगा तो उसके परिणाम कर्ज के चक्रव्यूहं को और मजबूत करना होगा।