राज्यों में विश्वसनीय नेतृत्व का अभाव है-कांग्रेस की समस्या

Created on Monday, 14 October 2024 09:32
Written by Shail Samachar

हरियाणा में कांग्रेस की हार बहुत लोगों के लिये अप्रत्याशित है क्योंकि चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों और आकलनों में किसी ने भी इस हार के प्रति इंगित नहीं किया था। जब प्रधानमंत्री ने हिमाचल की सुक्खू सरकार की असफलताओं को हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में चुनावी मुद्दा बनाकर उछाला तब शैल को यह आशंका हो गयी थी कि चुनाव परिणाम उम्मीदों के विपरीत होंगे। शैल के पाठक जानते हैं कि हमने 16 सितम्बर के अंक में पूरे विस्तार से लिखा था कांग्रेस केंद्र में सत्ता में नहीं है। केवल हिमाचल, कर्नाटक और तेलंगाना राज्य में उसकी सरकारें हैं। इसलिये कांग्रेस जब भी किसी राज्य के चुनाव में अपने घोषणा पत्र के माध्यम से उस राज्य के लिये अपने वायदे रखेगी तो उन वायदों की पड़ताल उसकी राज्य सरकारों की परफारमैन्स से की जायेगी यह स्वभाविक है। हिमाचल हरियाणा का पड़ोसी राज्य है। 1966 में पंजाब पुनर्गठन से हरियाणा और वर्तमान हिमाचल निकला है। भाखड़ा विस्थापितों का पुनर्वास भी हरियाणा में हुआ है। लगभग एक दर्जन विधानसभा सीटों पर इन विस्थापितों का निर्णायक प्रभाव है। यह विस्थापित हिमाचल से हर समय जुड़े हुये हैं। इसलिये हिमाचल सरकार की परफॉरमैन्स के लिये इन्हें किसी अन्य के प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं रहती। हिमाचल सरकार की परफॉरमैन्स अपने ही कारणों से अपनी ही दी हुई गारंटीयों के आईने में पूरी तरह असफल रही है। इस असफलता के कारण हरियाणा का मतदाता कांग्रेस के वायदों पर विश्वास नहीं कर पाया। कर्नाटक में मुख्यमंत्री स्वयं विवादों में धिरे हुये हैं। इसलिये कांग्रेस पर विश्वसनीयता बना पाने में आम आदमी निर्णायक नहीं हो पा रहा है।
हरियाणा में कांग्रेस की हार निश्चित रूप से राष्ट्रीय स्तर पर एक गंभीर मुद्दा है। हरियाणा में भाजपा ने भी मुफ्ती की घोषणाओं के सहारे सत्ता पायी है। मुफ्ती के वायदों पर आरटीआई से लेकर सर्वाेच्च न्यायालय तक का जो रुख रहा है उसका हरियाणा के चुनाव पर कोई असर नहीं दिखा है। भाजपा और कांग्रेस जैसे बड़े दलों ने आरबीआई और सर्वाेच्च न्यायालय को खुलकर अंगूठा दिखाया है। मुफ्ती के वायदों को भाजपा कैसे पूरा करती है और उसका हरियाणा की अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ता है यह आने वाला समय ही बतायेगा। इस समय हरियाणा बेरोजगारी में शायद देश में पहले स्थान पर है। किसान आन्दोलन का केंद्र हरियाणा रहा है। शायद इसी के कारण यह माना जा रहा था कि अब भाजपा प्रदेश की सत्ता से बाहर हो जायेगी। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। क्योंकि जब नरेन्द्र मोदी का रथ लोक सभा चुनाव में चार सौ पार के नारे के बाद दो सौ चालीस पर रुक गया और नीतीश तथा चन्द्रबाबू नायडू के सहारे सत्ता तक पहुंचे तब यह स्पष्ट हो गया था कि अब जिस भी राज्य में विधानसभा चुनाव होंगे उन्हें येनकेन प्रकरेण भाजपा जीतने का प्रयास करेगी। हरियाणा में चुनाव से पहले मुख्यमंत्री का बदला जाना भी इसी रणनीति का हिस्सा था। इसी रणनीति के तहत वक्फ संशोधन विधेयक लाना और उस पर राष्ट्रीय बहस चलवाना तथा इसी बीच एक देश एक चुनाव की रिपोर्ट आना कुछ ऐसे संकेत बन जाते हैं जिन से भविष्य का बहुत कुछ समझा जा सकता है। कांग्रेस के रणनीतिकार और विश्लेषक इसका आकलन नहीं कर पाये।
इस समय जो राजनीतिक वातावरण निर्मित हो रहा है उसमें अधिकांश दलों में और विशेषकर कांग्रेस के अन्दर ऐसे लोगों की संख्या बहुत है जो अनचाहे और बिना समझे ही हिन्दू एजैण्डे के ध्वजवाहक बने हुये हैं। जबकि यह एजैण्डा एक राजनीतिक एजैण्डा बनकर रह गया है। इस स्थिति को समझने की आवश्यकता है। सारा एजैण्डा आर्थिक मुद्दों से ध्यान हटाने की रणनीति है। इसलिये आज कांग्रेस को अपनी विश्वसनीयता बनाने की आवश्यकता है। इसके लिये राज्य सरकारों की परफॉरमैन्स पर ध्यान देने की आवश्यकता है। क्योंकि कांग्रेस को लोग राहुल गांधी के ब्यानों से ज्यादा पार्टी की राज्य सरकारों की परफारमैन्स से आंकेंगे। क्योंकि जब से आरटीआई और सर्वाेच्च न्यायालय ने मुफ्ती की घोषणाओं पर कड़ा रुख दिखाया है तब से आम आदमी सरकारों की कर्ज संस्कृति पर भी नजर रख रहा है। आज हिमाचल में सरकार जिस तरह से प्रदेश को कर्ज के चक्रव्यूह में डालकर घी पीने का काम कर रही है उसे आम आदमी पसन्द नहीं कर रहा है। इसलिये हरियाणा की हार को ईवीएम गड़बड़ी करार देने से पहले कांग्रेस को अपनी राज्य सरकारों की जन स्वीकार्यता का आकलन करना होगा। क्योंकि हरियाणा की हार की कीमत महाराष्ट्र और झारखंड में चुकानी पड़ सकती है। इंडिया के सहयोगी दल भी कांग्रेस के प्रति अलग राय बनने पर विवश हो जाएंगे। जब तक राज्यों में विश्वसनीय नेतृत्व नहीं आ पाता है तब तक कांग्रेस के लिये भविष्य आसान नहीं होगा।