प्रैस के बदलते स्वरूप में कुछ सवाल

Created on Friday, 22 November 2024 11:31
Written by Shail Samachar

इस बार राष्ट्रीय प्रेस दिवस पर चर्चा का विषय था प्रैस का बदलता स्वरूप। इस चर्चा के लिये संवाद गोष्ठी का आयोजन पहले की तरह सूचना एवं जनसंपर्क विभाग ने किया। परन्तु इस बार विभाग ने इस संवाद गोष्ठी के लिये सारे पत्रकारों को आमंत्रित और सूचित करना भी आवश्यक नहीं समझा। इसी से पता चलता है कि सही में प्रैस के प्रति इस सरकार की सोच और समझ क्या है। इस सरकार को सत्ता संभाले दो वर्ष होने जा रहे हैं। इन दो वर्षों में सूचना एवं जनसंपर्क विभाग से लेकर विभाग के निदेशक सचिव मीडिया सलाहकार और प्रभारी मंत्री किसी ने भी मीडिया कर्मियों से कोई औपचारिक बैठक नहीं की है जिसमें मीडिया कर्मी अपनी बात सरकार के सामने रख पाते। बल्कि सरकार ने व्यवहारिक रूप से जिस तरह से पत्रकारों के खिलाफ पुलिस तंत्र का प्रयोग करना शुरू किया है वह पिछली सरकारों से भी कहीं ज्यादा आगे चला गया है। अखबारों के विज्ञापन बन्द करने से लेकर उनके अवासों के किराए में पांच गुना तक बढ़ौतरी कर दी गयी। सरकार के इस चलन से स्पष्ट हो जाता है कि यह सरकार मीडिया को गोदी मीडिया बनाकर रखने का हर संभव प्रयास कर रही है। क्योंकि समाचारों पर स्पष्टीकरण जारी करने या मानहानि के मामले दायर करने की जगह जब सरकार और उसका तंत्र पुलिस का प्रयोग करने पर आ जाता है तो स्पष्ट हो जाता है कि सरकार हर तरीके से प्रैस को डरा धमका कर रखना चाहती है। इस अवसर पर यह सब इसलिये लिखना आवश्यक हो गया है क्योंकि प्रैस के बदलते स्वरूप के बीच पत्रकारों से पत्रकारिता के मूल्यों की रक्षा करने का आग्रह किया गया है। पत्रकार हर सरकार का स्थाई विपक्ष माना जाता है। यह पत्रकार को तय करना होता है कि उसने सरकार का रिपोर्ट बनकर सरकार का ब्यान यथास्थिति आम आदमी के सामने रखना है या आम आदमी के लिये सरकार सेे तीखे सवाल करने हैं। क्योंकि सरकार का गुणगान करने के लिये इतना बड़ा विभाग कार्यरत है। हर मंत्री के साथ विभाग के लोग अटैच रहते हैं। हर सार्वजनिक उपक्रम में लोक संपर्क की इकाई स्थापित रहती है। सरकार के पास अपनी बात आम आदमी तक पहुंचाने के लिए दर्जनों साधन हैं। परन्तु आम आदमी के पास उसके सवाल सरकार से पूछने के लिये पत्रकार के अतिरिक्त और कोई नहीं है। जिस सरकार को अपने हर फैसले पर स्पष्टीकरण देने पड़े उन्हें संयोजित करना पड़े उस सरकार से कितने सवाल पूछे जाने चाहिए? उसके हर दावे पर क्या सवाल नहीं उठ रहे हैं। इसलिए जब कोई पत्रकार आम आदमी का पक्ष लेकर सरकार से सवाल करेगा तो उसे सरकार की ताकत के साथ टकराने का साहस रखना ही होगा। एक समय था जब सरकारें लोक लाज से डरती थी। लेकिन आज यह लोक लाज कोई सवाल ही नहीं बचा है। आज तो सत्ता में आकर पांच साल तक सत्ता सुख कैसे भोगना इसका जुगाड़ बैठाने की योजनाएं बनाने में ही समय निकल जाता है। आज तो विपक्ष और सत्ता पक्ष में विरोध प्रदर्शन एक रस्म अदागी से अधिक कुछ नहीं रह गया है। एक समय सरकारें भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस का दावा करती थी। विपक्ष सत्ता पक्ष के खिलाफ राज्यपाल को आरोप पत्र सौंपता था और सत्ता में आकर उस पर जांच की जाती थी। लेकिन अब व्यवस्था परिवर्तन में भ्रष्टाचार पर कोई बड़ा दावा करना भूतकाल की बात हो गया है। अब तो यदि कोई पत्रकार भ्रष्टाचार पर सवाल उठाने का साहस करता है तो सबसे पहले उसी के खिलाफ पुलिस बल के प्रयोग का प्रयोग शुरू हो जाता है। व्यवहारिक रूप से बदल रहे इस स्वरूप के बीच भी पत्रकारिता के मूल्य की रक्षा करना सही में एक चुनौती है। शैल का अपने पाठकों से वायदा है कि हम इस चुनौती से डरेंगे नहीं और आम आदमी के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाते रहेंगे।