पहलगाम की आंतकी घटना के बाद पूरे देश में आतंकवाद के खिलाफ भयंकर रोष था। इस आतंकवाद को सीमा पार से संचालित करार दिये जाने के बाद पूरे विपक्ष ने सरकार को खुला समर्थन देते हुये इससे निपटने के लिये प्रभावी कदम उठाने का आग्रह किया। बल्कि जब सरकार ने इस पर जवाबी कारवाई करने में कुछ समय लगा दिया तब इस देरी के लिए प्रश्न भी पूछे गये। अन्त में सरकार ने सैन्य कारवाई करने का फैसला लिया। पाकिस्तान स्थित आतंकी ठिकानों को निशाना बनाकर पूरी तरह नष्ट कर दिया। इस कारवाई में सेना ने जो समझ और साहस दिखाया उस पर पूरे देश ने गर्व महसूस किया। लेकिन इस शुरुआत के चौथे दिन ही जब इसमें सीज फायर घोषित कर दी गयी तब देश को इस पर आश्चर्य हुआ क्योंकि भारतीय सेना इसमें लगातार सफल होती जा रही थी तब ऐसे में भारत द्वारा इस सीज फायर की घोषणा करना या इस पर सहमत होना अटपटा सा लगा। लेकिन जब इस युद्ध विराम का श्रेय अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने लिया और इसकी सूचना भी भारत से पहले दे दी तब से पूरी स्थितियों में एक मोड़ आ गया है। क्योंकि ट्रंप ने इस दखल का तीन बार अपने ब्यानों में श्रेय ले लिया। जबकि प्रधानमंत्री मोदी ने जब सीज फायर के बाद देश को संबोधित किया तब उन्होंने एक बार भी अपने संबोधन में ट्रंप का जिक्र तक नहीं किया है विपक्ष ने इस पर सर्वदलीय बैठक बुलाने या संसद का सत्र बुलाकर स्थिति स्पष्ट करने की मांग की है लेकिन सरकार ऐसा नही कर रही है। अपने देश और संसद के सामने स्थिति स्पष्ट करने की बजाये सरकार ने सांसदों का एक डेलीगेट विभिन्न देशों में भेजने का निर्णय लिया जो वहां पर भारत का पक्ष रखेंगे।
ऐसे में यह सवाल खड़ा हो गया है देश और संसद या सर्वदलीय बैठक में स्थिति स्पष्ट करने की बजाये विदेशों में अपना पक्ष रखने का विकल्प क्यों चुना गया। क्योंकि जब आई एम एफ ने पाकिस्तान को एक बिलियन डॉलर का ऋण पहलगाम की घटना के बाद स्वीकार किया तब एक देश ने इसका विरोध नहीं किया। जबकि इस कमेटी में भारत समेत पच्चीस देश सदस्य थे। भारत ने इसके विरोध में मतदान करने की बजाये बैठक का बहिष्कार करने का निर्णय लिया। किसी भी देश का समर्थन इस बैठक में हासिल क्यों नहीं कर पाया इसका जवाब भारत कैसे देगा? भारत-पाक के रिश्ते इस आतंक को लेकर तो देश के विभाजन के बाद से ही बिगड़ने शुरू हो गये थे। हर आतंकी घटना में पाक की परोक्ष/अपरोक्ष में भूमिका रही है। फिर प्रधानमंत्री मोदी पिछले ग्यारह वर्षों में इस विषय पर अन्तरराष्ट्रीय समुदाय को क्यों नहीं समझा पाये हैं? जबकि भारत तो विश्व गुरु होने का दावा करता आया है। ऑपरेशन सिंदूर के बाद जिस तरह से विदेश सचिव विक्रम मिस्त्री और उनके परिवार को ट्रोल किया गया उसका क्या जवाब है? कर्नल सोफिया कुरैशी को जिस भाषा में मध्यप्रदेश के मंत्री विजय शाह ने अपशब्द कहे हैं उसका अदालत ने तो कड़ा संज्ञान ले लिया लेकिन भाजपा संगठन की इस बारे में आज तक खामोशी का क्या जवाब है। प्रधानमंत्री इस ट्रोल पर क्यों खामोश हैं?
अभी जो सांसद विदेश डैलीगेशन में भेजे जा रहे हैं उनके चयन में उनके दलों को विश्वास में क्यो नहीं लिया गया? जो नाम दलों ने भेजे उनकी जगह सरकार ने दूसरे ही लोगों का चयन क्यों कर लिया? क्या इसमें दलों की सहमति नहीं रहनी चाहिये थी। क्या इसे राजनीति के आईने में नही देखा जायेगा। जब विदेश में इस ट्रोल को लेकर पूछा जायेगा तो क्या जवाब दिया जायेगा? क्योंकि यह वीडियोज तो पूरे विश्व में देखे जा रहे होंगे। पाक पर कारवाई का विदेश मंत्री का वीडियो जिसमें वह कह रहे हैं कि हमने हम्लों की सूचना पहले ही पाकिस्तान को दे दी थी। इसका क्या जवाब दिया जायेगा। आज सबसे पहले अपने देश की जनता, सभी राजनीतिक दलों और संसद के सामने सारी स्थितियां स्पष्ट की जानी चाहिये थी क्योंकि पूरा देश सरकार और सेना के साथ खड़ा रहा है। इसलिये ऑपरेशन सिंदूर के बाद उठे सवालों पर यहां जवाब दिया जाना आवश्यक हो जाता है।