शिमला/शैल। राजीव बिन्दल के खिलाफ पिछले 15 वर्षों से चले आ रहे मामले में जयराम सरकार ने फिर अपना स्टैण्ड बदलते हुए इस मामले को वापिस लेने के लिये अदालत से गुहार लगायी है। इससे पहले भी जयराम सरकार आने पर इस मामले की पैरवी कर रहे सरकारी वकील ने यह मामला वापिस लेने के लिये सरकार को एक नोट भेजा था। तब विजिलैन्स ने इस नोट के अनुसार कारवाई करने की बजाये नोट भेजने वाले वकील को ही बदल दिया था। उसके बाद जो
सरकार मामला वापिस ले सकती है यह सरकार का अधिकार क्षेत्र है लेकिन इस अधिकार का प्रयोग कब तक किया जा सका है यह एक महत्वपूर्णे सवाल है। ऐसे मामलों में नामज़द अभियुक्त मामले में दर्ज हुई एफआईआर वापिस लेने की गुहार पुलिस से कर सकता है। पुलिस के मना करने पर अदालत से उसे रद्द करने का आग्रह कर सकता है। इस मामले में ऐसा कुछ नही हुआ है। धूमल शासन में विधानसभा अध्यक्ष ने इसमें अभियोजन की अनुमति देने से इन्कार कर दिया था लेकिन यह अदालत के सामने आयी ही नही थी। अब जयराम सरकार को भी सत्ता में आठ माह हो गये हैं लेकिन सरकार इस मामले में अन्तिम फैसला नही ले पायी। जबकि अदालत में कारवाई चलती रही और अभियोजन पक्ष की सारी गवहीयां भी हो चुकी हैं। सरकारी वकील जब इसमें मामला वापिस लेने का आग्रह अदालत के समाने रखता है जो उसे यह कहना होता है कि वह मामलें में उपलब्ध सारे रिकार्ड को देखने के बाद इस नतीजे पर पंहुचा है कि इसमें अभियुक्त को दोषी सिद्ध कर पाना संभव नही होगा। ऐस में मामले को आगे बढ़ाना अदालत का समय ही बर्बाद करना होगा लेकिन यह आवश्यक नही है कि अदालत वकील की राय से सहमत हो ही जाये और मामला वापिस लेने के आग्रह को मान ही ले। फिर यह मामला तो फैसले के कगार पर पंहुचा हुआ है। अदालत में वकील को अपनी राय रखनी है और उसमें यह नही झलकना चाहिये कि मामला वापिस लेने के लिये सरकार का दबाव है।
अभी सर्वोच्च न्यायालय ने विधायकों/सांसदो के लंबित मामलों को निपटाने के लिये विशेष अदालतें गठित करने के निर्देश दिये हुए हैं। इन विशेष अदालतों पर रिपोर्ट तलब की है। इस पर हिमाचल में कोई विशेष अदालत गठित नही हुई है। जबकि ऐसे 84 मामले लंबित चले आ रहे हैं इसी के साथ अभी सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी निर्देश दिया है कि "Every Acquittal has to viewed seriously" इसमें जिम्मेदारी तय करने के लिये कहा गया है। इस परिदृश्य में बिन्दल मामले को इस स्टेज पर वापिस लेने के आग्रह पर यदि अदालत सहमत हो जाती है तो यह सहमति सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के एकदम प्रतिकूल होगी। दूसरी ओर जयराम सरकार पर यह सवाल उठेगा कि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ कितनी गंभीर है। जहां सरकार लगातार यह दावा कर रही है कि भ्रष्टाचार कई बर्दाशत नही होगा वहीं इसका यह अर्थ लगाया जायेगा कि भ्रष्टाचार के प्रति यह स्टैण्ड केवल विरोधियों पर ही लागू होगा अपनो पर नहीं। क्योंकि यह मामला फैसले के कगार पर पंहुचा हुआ है और अब इस स्टेज पर इसे वापिस लेने के आग्रह का जनता में यही संदेश जायेगा कि शायद इसें सरकार को विश्वास हो गया था कि दोषियों को सज़ा हो जायेगी। इस सज़ा से बचने के लिये ही मामला वापिस लिया जा रहा है। यदि यही फैसला सरकार पहले ही एक महीने में ले लेती तो सरकार की नीयत पर कोई सवाल नही उठते। अब यदि इस स्टेज पर अदालत भी सरकार के आग्रह को मान लेती है तो इसका संदेश अदालत की निष्क्षता पर भी अनचाहे ही प्रश्नचिन्ह लगा देगा।