प्रचार के दौरान एक मंच पर दिखेंगे दोनों नेता
पंडित सुखराम की कांग्रेस में वापसी के प्रभाव का आकलन करने के लिये यह समझना आवश्यक होगा कि इस समय प्रदेश की राजनीतिक स्थिति क्या है और उसमें कांग्रेस और भाजपा कहां खड़े हैं। इस समय प्रदेश की सत्ता भाजपा के पास है और कांग्रेस विपक्ष में हैं कांग्रेस में सबसे बड़ा कद पूर्व मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह का है क्योंकि वह छः बार प्रदेश के मुख्यमन्त्री रह चुके हैं। मुख्यमन्त्री होने के लिये कांग्रेस मे उनके सबसे बड़े प्रतिद्वन्दी पंड़ित सुखराम ही रहे हैं। सुखराम और वीरभद्र में यह टकराव किस हद तक पहुंच गया था इसका गवाह वह सब लोग रहे हैं जिन्होंने 1993 में वीरभद्र समर्थकों द्वारा किया गया विधानसभा भवन का घेराव देखा है। इसी घेराव का परिणाम था कि सुखराम अपने समर्थकों के साथ चण्डीगढ़ बैठे रहे और शिमला में अकेले वीरभद्र की बतौर मुख्यमन्त्री शपथ हो गयी थी। 1993 के इस टकराव का पूरा प्रतिफल सुखराम के खिलाफ खड़े हुए दूर संचार घोटाले और मण्डी में उनके आवास पर सीबीआई छापे में मिले चार करोड़ के रूप में सामने आया। क्योंकि सुखराम ने इस सबको वीरभद्र सिंह और स्व. राजेश पायलट तथा सीताराम केसरी का रचा षडयंत्र करार दिया था। इसी परिदृश्य में सुखराम कांग्रेस से 1997 में बाहर निकले और हिमाचल विकास कांग्रेस का गठन करके 1998 में वीरभद्र सिंह और कांग्रेस को सत्ता से बाहर किया। इसके बाद सुखराम फिर कांग्रेस में शामिल हुए और 2017 के विधानसभा चुनावों से पहले फिर बाहर हुए और वीरभद्र की सत्ता में वापसी फिर रोक दी। भाजपा में शामिल हुए मण्डी की सभी दस सीटों पर कांग्रेस को हार मिली तथा भाजपा को मण्डी से जयराम के रूप में मुख्यमन्त्री मिला। पंड़ित सुखराम को दूर संचार घोटाले में सजा मिल चुकी है और इसी सज़ा के कारण वह चुनावी राजनीति से बाहर हो गये हैं। लेकिन इसी घोटाले के साये में होते हुए भाजपा दो बार 1998 और 2017 में उनके कारण सत्ता भोग चुकी है। इसलिये भ्रष्टाचार के नाम पर आज भाजपा के पास सुखराम परिवार को कोसने का कोई अधिकार नही बचता है।
इसी के साथ कांग्रेस में जो टकराव एक समय वीरभद्र और सुखराम में था वह आज भूतकाल की बात होने जा रहा है। क्योंकि जहां सुखराम अपने केस के कारण चुनाव राजनीति से बाहर हो गये हैं वही स्थिति कानून के जानकारों के मुताबिक निकट भविष्य में वीरभद्र की होने वाली है। सुखराम का बेटा अनिल आज तीसरी बार मन्त्री बना हुआ है। पौत्र आश्रय को कांग्रेस से लोस टिकट मिल चुका है। इस नाते सुखराम का परिवार प्रदेश की राजनीति में वीरभद्र परिवार के मुकाबले ज्यादा स्थापित है। फिर मण्डी की कांग्रेस की राजनीति में सुखराम परिवार को चुनौती देने वाला कोई बड़ा नाम शेष नही है। क्योंकि कौल सिंह अगला चुनाव न लड़ने की बात कह ही चुके हैं और उनकी बेटी भी हार गयी थी। इस तरह मण्डी मे पूरी फील्ड इस परिवार के लिये खाली है और इस भविष्य के लिये अनिल को मन्त्री पद दाव पर लगाना कोई बड़ी कीमत नही है। जबकि वीरभद्र का बेटा पहली बार विधायक बना है। उनकी पत्नी राजनीति में स्थापित नहीं हो पायी है। बेटा शिमला ग्रामीण से विधायक बना है क्योंकि रामपुर और रोहडू दोनों ही आरक्षित क्षेत्र हैं। ऐसे में विक्रमादित्य को राजनीति में स्थापित होने के लिये यहीं पर अपनी ज़मीन पुख्ता करनी होगी। इसके लिये आज वीरभद्र और विक्रमादित्य को सबको साथ लेकर चलना उनकी राजनीतिक अनिवार्यता हो जाती है। इस वस्तुस्थिति में आज वीरभद्र के लिये यह आवश्यक हो जाता है कि वह पूरी ईमानदारी से सुखराम और आश्रय का सहयोग करें। इस सहयोग के लिये उन्हे रामपुर और किन्नौर से ही इतनी बढ़त सुनिश्चित करनी पड़ेगी कि अकेले उसी के दम पर आश्रय की जीत का श्रेय उन्हें मिले। क्योंकि हर बार जब भी प्रदेश में कांग्रेस हारी है उसके लिये कांग्रेसी सबसे पहला आरोप वीरभद्र सिंह पर ही लगाते आये हैं। इस आरोप को खारिज करने और बेटे के लिये भविष्य में सहयोग सुनिश्चित करने के लिये आज वीरभद्र सिंह के पास कोई विकल्प शेष नहीं रह जाता है। क्योंकि यह आज हर आदमी मान रहा है कि यदि सुखराम और वीरभद्र सिंह इकट्ठे होकर एक साथ एक बार भी पूरे प्रदेश में घूम आये तो 2014 की हार का पूरा बदला ले सकते हैं।