शिमला/शैल। सातवें चरण के मतदान के साथ ही चुनावी प्रक्रिया का एक सबसे बड़ा हिस्सा पूरा हो गया है। अब केवल मतगणना और उसका परिणाम शेष है। अन्तिम चरण का चुनाव प्रचार थमने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमितशाह ने पार्टी मुख्यालय में एक पत्रकार वार्ता को भी संबोधित किया। इस संबोधन में प्रधानमंत्री ने एक तरह से अपने ही मन की बात इस वार्ता में रखी क्योंकि उन्हांने पत्रकारों का एक भी सवाल नही लिया और जब सवाल ही नही लिया तो जवाब का प्रश्न ही नही उठता। हां इस पत्रकार वार्ता में प्रधानमन्त्री ने देश की जनता
इस पृष्ठभूमि में यदि पूरे चुनाव का आकलन किया जाये तो सबसे पहले यह सामने आता है कि चुनाव भाजपा में केवल दो व्यक्तियों प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष के गिर्द ही केन्द्रित रहा है। इसी के साथ यह भी सामने आया है कि इस चुनाव में पार्टी ने प्रिन्ट मीडिया की बजाये सोशल मीडिया और टीवी चैनलों पर ज्यादा निर्भरता रखी। तीसरा तथ्य यह रहा है कि भाजपा ने चुनाव में आम आदमी के मुद्दों बेरोज़गारी, मंहगाई और भ्रष्टाचार को अपने प्रचार में कहीं भी केन्द्र में नही आने दिया। भाजपा के एक भी स्टार प्रचारक ने इन मुद्दों पर न तो अपने चुनावी भाषणों में और न ही पत्रकार वार्ताओं में चर्चा में आने दिया। जबकि कांग्रेस ने इन्ही मुद्दों पर सबसे ज्यादा अपने को केन्द्रित रखा। भाजपा के चुनाव घोषणा पत्र में भी इन मुद्दों को प्रमुखता नही दी गयी है। जबकि कांग्रेस के घोषणा पत्र का केन्द्र बिन्दु ही यही मुद्दे हैं। भाजपा हर चरण के साथ मुद्दे बदलती रही है और अन्त तक आते-आते उसने विपक्ष की गालीयों की गिनती भी जनता के सामने मुद्दा बनाकर पेश कर दिया। इस चुनाव में प्रधानमंत्री ने बालाकोट की एयर स्ट्राईक, सर्जिकल स्ट्राईक, जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों के खिलाफ कारवाई, राष्ट्रवाद और प्रज्ञा ठाकुर को उम्मीदवार बनाकर ‘‘भगवा आतंकवाद’’ के सम्बोधन को मुद्दा बनाकर हिन्दुवोटों का ध्रुवीकरण करने के प्रयास के गिर्द ही पूरे चुनाव प्रचार को केन्द्रित रखा है। इसलिये यह आकलन करना महत्वपूर्ण हो जाता है कि इस ध्रुवीकरण का अन्तिम परिणाम क्या हो सकता है।
इस ध्रुवीकरण का आकलन करने से पहले 2014 के चुनावों से लेकर अब तक के घटनाक्रमों पर नजर डालना आवश्यक हो जाता है। 2014 के चुनावों से पहले कालेधन और भ्रष्टाचार को लेकर जो जनधारणा रामदेव और अन्ना हजा़रे के आन्दोलनों के माध्यम से तैयार हुई थी उसका सबसे अधिक लाभ भाजपा को मिला था क्योंकि इस जनधारणा को ‘अच्छे दिनों ’’ का भरोसा दिखाया गया था। लेकिन आज न तो अच्छे दिन ही आये हैं और न ही रामदेव और अन्ना के आन्दोलन हैं। 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद जितने विधानसभा चुनाव हुए हैं उनमें भाजपा को हरियाणा, उत्तराखण्ड और हिमाचल को छोड़कर कहीं भी अपने दम पर बहुमत नही मिला है। जहां भी भाजपा ने सरकारें बनायी हैं वहां चुनाव परिणामों के बाद गठबंधन बनाये गये और तब सरकारें बनी। बिहार में लालू-नितिश के गठबन्धन को तोड़कर भाजपा-नितिश गठबन्धन सत्ता में आया। उत्तरप्रदेश में हिन्दु-मुस्लिम धु्रवीकरण से प्रदेश में सरकार बनी लेकिन जैसे ही इस धु्रुवीकरण की राजनीति को समझकर सपा-बसपा एक हुए वैसे ही उत्तर प्रदेश उपचुनाव भाजपा हार गयी 2014 के बाद लोकसभा का हर उपचुनाव भाजपा हारी है यह एक तथ्य है। इसके बाद गुजरात और कर्नाटक में कांग्रेस की स्थिति सुधरी। कर्नाटक में तो जेडी(एस) और कांग्रेस ने सरकार बना ली। मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीगढ़ की सरकारें भाजपा के हाथ से निकल गयी। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि 2014 के चुनावों के बाद से मतदाता लगातार भाजपा से दूर होता गया है।
भाजपा का सबसे बड़ा शक्ति केन्द्र आरएसएस है। क्योंकि भाजपा संघ परिवार की एक राजनीतिक ईकाई है। संघ का पूरा विचार-दर्शन हिन्दुत्व के गिर्द केन्द्रित है यह सब जानते हैं। इस विचार-दर्शन की सफलता के लिये सघं के सैंकड़ो कार्यकर्ताओं ने अपनी गृहस्थी तक नही बसाई है। मुस्लिम समुदाय को लेकर संघ का अपना एक विशेष विचार दर्शन और धारणा है यह सब जानते हैं। इस धारणा से कितने सहमत भी हैं यह एक अलग प्रश्न है। लेकिन इस धारणा के प्रतीक रूप में सामने आये मुद्दे अयोध्या में राम मन्दिर का निर्माण, जम्मू-कश्मीर से धारा 370 को हटाना और मुस्लिमों पर युनिफाईड सिविल कोड लागू करना हर स्वयं सेवक का प्रमुख मुद्दा रहा है। दिसम्बर 1992 में इसी राम मन्दिर के निर्माण के लिये भाजपा ने अपनी राज्य सरकारों की आहूति दे दी थी। 1992 के बाद से राम मन्दिर हर चुनाव में मुख्य मुद्दा रहा है। 2014 के चुनाव में भी था। इसी हिन्दुत्व के ऐजैण्डे पर भाजपा को अपने ही तौर 283 सीटें मिल गयी थी और पूरा एनडीए 332 तक पंहुच गया था। 2014 में जो बहुमत भाजपा को मिला था वह शायद निकट भविष्य में दूसरी बार नही मिलेगा। लेकिन इतने प्रचण्ड बहुमत के बाद भी भाजपा हिन्दु ऐजैण्डे के एक भी मुद्दे को अमली शक्ल नही दे पायी है। जिस तीन तलाक के बिल को लोकसभा में पास करवाया उसे बाद में राज्यसभा में पेश नही किया गया। इस तरह मोदी सरकार में संघ को सबसे आहत के रूप में देखा जा रहा है। क्योंकि संघ के कार्यकर्ताओं ने ही सरकार की नीयत और नीति पर सवाल उठाने शुरू कर दिये हैं। शायद इन्ही सवालों के कारण पिछले कुछ अरसे से टीवी चैनलों की बहस में संघ के बुद्धिजिवि नही देखे जा रहे हैं। बल्कि संघ प्रमुख मोहन भागवत और राम माधव के ब्यानां को भी इसी सबका परिणाम माना जा रहा है। क्योंकि जो बहुमत इस बार मोदी के पास था उससे किसी भी ऐजैण्डे को कार्य रूप देना बहुत सहज था। इस तरह यदि मोदी सरकार के काम काज पर इस दृष्टि से नजर डाली जाये तो यह लगता है कि शायद इस बार मोदी पुनःप्रधानमन्त्री न बन पाये।