अब विपक्ष के साथ ही सत्तापक्ष में भी दबी जुबान से यह चर्चा शुरू हो गयी है कि आखिर प्रधानमन्त्री से इतनी बड़ी भूल कैसे हो गयी। क्या उद्घाटन से पहले प्रधानमन्त्री की प्रदेश के नेतृत्व और शीर्ष प्रशासन से इस बारे में कोई चर्चा नही हुई होगी। क्योंकि सामान्यतः ऐसे आयोजनों से पहले प्रदेश नेतृत्व से पूरा फीडबैक लिया जाता है ताकि बाद में प्रदेश को उससे लाभ मिले। लेकिन इस आयोजन में जिस तरह से प्रदेश भाजपा के दो वरिष्ठतम नेताओं पूर्व मुख्यमन्त्रीयों शान्ता कुमार और प्रेम कुमार धूमल इसमें आने से ही रोक दिये गये उससे निश्चित रूप से प्रदेश की राजनीति में एक नई ईबारत लिखे जाने का धरातल तैयार हो गया है। क्योंकि शान्ता-धूमल का प्रदेश में अपना एक अलग ही स्थान है प्रदेश के लिये इनके योगदान को हर चुनाव में भुनाया जाता है। यदि 2017 के विधानसभा चुनावों में धूमल को नेता घोषित नही किया जाता तो शायद भाजपा की सरकार न बन पाती। विधानसभा चुनावों के बाद लोकसभा चुनावों की जीत केन्द्रिय नेतृत्व के कारण मिली है और उसके बाद विधानसभा उपचुनावों में कांग्रेस की कमजोरी के कारण सफलता मिली थी। यह सफलताएं प्रदेश सरकार और संगठन के कारण कतई नहीं है। इसका खुलासा अब कांगड़ा केन्द्रिय सहकारी बैंक के निदेशकों के हुए चुनावों में हो गया है। इन चुनावों में राकेश पठानिया, सरवीण चैधरी, विक्रम ठाकुर और गोविन्द ठाकुर के जोनों में भाजपा उम्मीदवारों की हार एक बड़ा सन्देश है क्योंकि यह सभी जयराम मन्त्रीमण्डल के प्रभावी मन्त्री हैं।
यही नहीं सरकार और संगठन में भी सबकुछ अच्छा नहीं चल रहा है इसका संकेत पिछले दिनों सरवीण चैधरी पर लगे ज़मीन खरीद के आरोपों से सामने आ चुका है। इन आरोपों के सामने आते ही विजिलैन्स जांच की चर्चाएं चली लेकिन जैसे ही सरवीण ने अपना मुह खोला तो इन सबकी हवा निकल गयी। स्वास्थ्य विभाग में डा. राजीव बिन्दल पर आरोप और उन्होंने नैतिकता के आधार पर अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया। बाद में उन्हें क्लीनचिट मिल गया और संदेश यह गया कि शायद यह आरोप उन्हे अध्यक्ष पद से अलग करने के लिये ही लगाये गये थे। अब नरेन्द्र बरागटा के चुनावक्षेत्र में दूसरे नेताओं के बढ़ते दखल पर राजनीति गर्माने लगी है। बरागटा इस दखल से आहत हैं और मुख्यमन्त्री तथा पार्टी अध्यक्ष से अलग-अलग मिलकर अपना रोष प्रकट कर चुकें हैं। लेकिन इस पर भी अभी तक कोई परिणाम सामने नही आया है। कांगड़ा में रमेश धवाला बनाम पवन राणा खड़ा हुआ मुद्दा भी अपनी जगह अभी तक कायम है। अभी पीछे जो अधिकारियों के तबादले हुए हैं उनमें भी यह बाहर आया है कि एक अधिकारी के साथ एक विधायक के रिश्ते अच्छे न होने की गाज तबादले के रूप में गिरी है। मुख्यमन्त्री पर कौन लोग प्रभावी हो गये हैं यह चर्चा भी लगभग हर जुबान तक आ चुकी है। मन्त्री ही एक दूसरे के खिलाफ अपरोक्ष में यह उछालने लग गये हैं कि किसने कहां मकान खरीद लिया और किसने बागीचा खरीद लिया। पार्टी कार्यालय सोलन के लिये ज़मीन खरीदने में पार्टी के ही लोगों के खिलाफ घपला करने के आरोप भी अपनी जगह अब तक खड़े हैं। ऐसे में अगर इस सबको इकट्ठे मिलाकर एक आकलन किया जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि पार्टी के भीतर रोष की एक एक चिंगारी सुलगनी शुरू हो गयी है जो कभी भी किसी बड़े विस्फोट की शक्ल ले सकती है।
जब सरकार और संगठन में अन्दरखाते अशांति का वातावरण खड़ा हो तब दो वरिष्ठतम नेताओं पूर्व मुख्यमन्त्रीयों को प्रधानमन्त्री के लिये रखे आयोजन में शामिल होने के लिये मना कर दिया जाये तो यह स्वभाविक है कि इसको लेकर प्रदेश भर में चर्चाओं का दौर चलेगा ही। ऐसे में यह देखा जा रहा है कि क्या शान्ता -धूमल को इस आयोजन में न आने के निर्देश देना उनका मान सम्मान माना जाये या यह माना जाये कि वह अब अप्रसांगिक हो गये हैं। क्योंकि यदि यह एहमियत कोरोना संक्रमण के खतरे के चलते अपनाई गयी है तब तो यह सरकार के कोरोना प्रबन्धों पर केन्द्र का एक बड़ा फतवा हो जाता है। क्योंकि यह निर्देश पीएमओ के नाम से प्रदेश की जनता के सामने रखे गये हैं।