Friday, 19 September 2025
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बसपा परियोजना और विवेकानन्द मैमोरियल ट्रस्ट में मिले अनुभव के बाद भी निजिक्षेत्र की वकालत क्यों

शान्ता ने दिया था बसपा जे पी उद्योग को
बसपा में डूबे हैं बोर्ड के 92 करोड़
विवेकानन्द मैमोरियल ट्रस्ट है शान्ता का ड्रीम प्रोजेक्ट
अब ट्रस्ट का प्रबन्धन 2010 से जे पी के पास है
ट्रस्ट के अस्पताल को जनता ने भी दिये हैं 23 करोड़
ट्रस्ट के लिये सरकार ने भी 1 रूपये पर दी है ज़मीन
अब मरीजों से कमरे का किराया ही 8000 प्रतिदिन लेने का है आरोप

शिमला/शैल। विवादित कृषि कानूनों का प्रमुख आधार शान्ता कमेटी की सिफारिशें रही है यह स्पष्ट हो चुका है। यह चर्चा बाहर आने के बाद शान्ता कुमार इन कानूनों के समर्थन में पूरी तरह खुलकर सामने आ गये हैं। इन कानूनों को कृषि सुधारों का नाम देते हुए शान्ता ने स्पष्ट कहा है कि सरकार इन्हें वापिस नहीं लेगी। शान्ता ने एक ब्यान जारी करके कहा है कि शरद पवार और कपिल सिब्बल इन सुधारों का समर्थन कर चुके हैं और उनके विडियोज़ इसके गवाह हैं जो मुकर नहीं सकते। लेकिन यहां पर शान्ता यह स्पष्ट करना भूल गये कि कांग्रेस के समय में राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज और अरूण जेटली इनका विरोध क्यों कर रहे थे। इनके विरोध के विडियोज़ आज बाहर आ चुके हैं। इनसे यह सवाल उठ रहा है कि क्या आज किसान हितों की परिभाषा बदल गयी है।
शान्ता कुमार ने कृषि कानूनों का समर्थन करते हुए अपने 1990 के मुख्यमन्त्री काल में प्रदेश के बिजली क्षेत्र में निजिक्षेत्र को लाने के लिये एक लम्बा चौड़ा वक्तव्य ‘‘निजिकरण क्यों’’ के शीर्षक से जारी किया था। इसमें आंकड़े जारी करते हुए कहा गया कि निजिकरण क्यों आवश्यक है। यह आरोप भी लगाया गया था कि सरकारी कर्मचारी ईमानदारी से काम नहीं करता है और भ्रष्टाचार का कारण बनता है। उस समय प्रदेश बिजली बोर्ड प्रबन्धन के साथ निजिकरण की नीति को लेकर मतभेद भी हुए थे। बोर्ड के तत्कालीन अध्यक्ष कैलाश महाजन को उनके पद से हटा दिया गया था। बोर्ड कर्मचारियों ने एक बहुत बड़ा आन्दोलन किया था। शान्ता कुमार की सरकार संकट में आ गयी थी। बड़े प्रयासों से इस आन्दोलन को शान्त किया गया था। उस समय निजिकरण के नाम पर बसपा परियोजना को बिजली बोर्ड से छीन कर जे पी उद्योग को दिया गया था। बिजली बोर्ड इस परियोजना पर काफी निवेश कर चुका था इसलिये जेपी उद्योग और बिजली बोर्ड के बीच यह समझौता हुआ था कि जे पी उद्योग बिजली बोर्ड के निवेश को 16% ब्याज सहित वापिस करेगा। लेकिन जेपी उद्योग ने यह पैसा बिजली बोर्ड को वापिस नहीं किया। यहां तक कहा गया कि जब वसपा उत्पादन में आ जायेगा तब यह पैसा वापिस कर देगा। परन्तु 2003 में उत्पादन में आने के बाद भी यह पैसा वापिस नहीं हुआ। जब यह रकम ब्याज सहित 92 करोड़ हो गयी तब इसे यह कह कर बट्टे खाते में डाल दिया गया कि यदि यह पैसा वसूला जाता है तो जेपी उद्योग इसे उपभोक्ताओं पर डाल देगा इसलिये यह वापिस न लिया जाये। सरकार के इस तर्क पर कैग ने कड़ी आपत्ति दर्ज की है लेकिन कैग की आपत्तियों को नजरअन्दाज करके जेपी को यह 92 करोड की राहत प्रदान कर दी गयी। यहीं नहीं जब जेपी ने सारे नियमों को ताक पर रख कर बघेरी में थर्मल प्लांट लगाने का प्रयास किया था तब यह मामला प्रदेश उच्च न्यायालय में पहुंच गया था। उच्च न्यायालय ने इसका कड़ा संज्ञान लेकर जेपी को जुर्माना लगाने के साथ इसकी जांच के लिये एक कमेटी का गठन किया था। प्रशासन और उद्योग का इसे एक नापाक गठजोड़ करार देते हुए संवद्ध अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कारवाई करने के निर्देश दिये थे। इस जांच कमेटी का मुखिया केसी सडयाल को बनाया गया था और उनकी सेवानिवृति के बाद भी उच्च न्यायालय ने उन्ही को इसका अध्यक्ष रखा था। इस कमेटी की रिपोर्ट और उस पर हुई कारवाई की जानकारी आज तक सामने नहीं आ पायी है।
इसी दौरान 2010 में शान्ता के ड्रीम प्रौजैक्ट विवेकानन्द मैमोरियल ट्रस्ट के अस्पताल का संचलान और प्रबन्धन इसी जेपी उद्योग को सौंप दिया गया है। इस ट्रस्ट के लिये सरकार ने एक रूपये की लीज पर कई एकड़ जमीन दे रखी है। बल्कि अब इसी जमीन में से ट्रस्ट ने 50 कनाल जमीन कायाकल्प को दी है। इस अस्पताल के निर्माण के लिये जनता ने भी करीब 23 करोड़ का योगदान दिया हुआ है। इस अस्पताल को मिनी पीजी आई बनाने का वायदा किया गया था और इसी उद्देश्य के लिये इसमें जेपी उद्योग को लाया गया था लेकिन जेपी उ़द्योग दस वर्षों में इसमें कोई विस्तार नहीं कर पाया है बल्कि अभी कुछ दिन पहले यहां आये एक मरीज और उसके परिजनों के साथ हुए व्यवहार का एक विडियो नीलम सूद के नाम से वायरल हुआ है। इसमें प्रबन्धन के व्यवहार को लेकर बहुत शर्मनाक आरोप लगाये गये हैं। जिनकी शांता के संस्थान में कल्पना करना भी अजीब लगता है। इसी विडियो में यह भी खुलासा किया गया है कि मरीजों से कमरे का किराया आठ हजार लिया जा रहा है। इस विडियो का कोई खण्डन नहीं किया गया है और न ही इस पर शांता से लेकर जयराम सरकार तक कोई कारवाई की है।
शांता दो बार प्रदेश के मुख्यमन्त्री और फिर केन्द्र में मन्त्री रह चुके हैं सीमेन्ट उद्योग को भी सरकारी नियन्त्रण से बाहर लाने में राज्य से लेकर केन्द्र तक उनका योगदान रहा है। उक्त प्रसंगों से स्पष्ट हो जाता है कि वह निजिक्षेत्र के कितने बड़े पक्षधर रहे हैं और आज भी हैं। हिमाचल में निजिकरण के इन प्रयोगों से प्रदेश की जनता और सरकार को कितना लाभ हुआ है यह सब जानते हैं। आज प्रदेश का कर्ज भार साठ हजार करोड़ से उपर जा चुका है। इसमें सबसे बड़ा योगदान इस निजिकरण की नीति का है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक और आवश्यक है कि क्या इन प्रत्यक्ष अनुभवों के बाद भी निजिक्षेत्र की वकालत की जानी चाहिये।

किसान सभा के डा. तनवर का शान्ता के नाम खुला पत्र

आदरणीय श्री शांता कुमार जी ,
हिमाचल एक बहुत छोटा राज्य है। संसद में इसकी ताकत भी बहुत कम है। परंतु छोटा राज्य होने के बावजूद हिमाचल प्रदेश को केंद्रीय मंत्रिमंडल में भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों की सरकारों में महत्वपूर्ण मंत्रालयों का
संचालन करने का मौका मिला है। विशेष तौर पर आप खाद्य आपूर्ति एवं उपभोक्ता मामलों के मंत्री रहे हैं। प्रदेश का नेतृत्व भी किया। आप जिस संसदीय क्षेत्र का नेतृत्व करते रहे हैं उन क्षेत्रों में अगर कोई नकदी फसल है तो वह मक्की है। जिसके कुल उत्पादन का 3-4 लाख मीट्रिक टन उत्पादन ( Marketable Surplus )किसानों की आमदनी का मुख्य स्रोत है ।
मक्की का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1850 रुपये प्रति क्विंटल तय है परंतु किसानों को अधिकतम कीमत 800-1100 रुपये ही मिल पाती है। हिमाचल प्रदेश का एकमात्र कृषि विश्वविद्यालय आपके गृह क्षेत्र पालमपुर में ही स्थित है। जिसमें शोध किया गया है कि मक्की से 34 किस्म के उत्पाद तैयार किये जा सकते हैं। अगर इसके लिए उस तरह के उद्योग या प्रसंस्करण केंद्र स्थापित किये जाएं। हिमाचल प्रदेश का किसान बहुत छोटा है। उसके थोड़े से अतिरिक्त उत्पाद में अगर मूल्य संवर्धन हो सके तो उसकी आजीविका में बेहतरी आ सकती है। आय भी दुगनी हो सकती है। मगर किसी भी प्रदेश सरकार में किसी के भी नेतृत्व में और हिमाचल प्रदेश से केन्द्र में प्रतिनिधित्व करने वाले किसी भी हिमाचली प्रतिनिधि ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। हिमाचल प्रदेश छोटा राज्य है लेकिन इसकी जलवायु और इसकी जैव विविधता इसकी बहुत बड़ी ताकत है पर कभी न उसका सही आकलन किया गया और न ही उसके वैज्ञानिक अधिकतम दोहन के लिए कोई योजना बनाई गई। बल्कि राज्य सरकारें केन्द्र से अपना उचित हक या हिस्सा लेने में भी सफल नहीं हो पाई। आज अगर कोई भी तबका अपने हक की मांग उठाता है तो वह या तो  "अर्बन नक्सल " हो जाता है या माओवादी, नक्सलवादी करार दिया जाता है। किसी भी आंदोलन में चीन और पाकिस्तान की साजिश बता दी जाती है। देशद्रोही ठहराया जाता है। असल मुद्दे को क्षेत्र, धर्म, जाति, राजनैतिक विचारधाराओं के खांचे में फिट करने की कोशिश की जाती है। खेद तब अधिक होता है जब आप जैसे दूरदृष्टा और वरिष्ठ राजनीतिज्ञ की ओर से ऐसे बयान सामने आते हैं। इस समय जब किसान आंदोलन में है,  बेहतर होता कि " किसान मोर्चा "और "भारतीय किसान संघ " जैसे संगठन भी किसानों के पक्ष में आकर खड़े होते और उनकी मांगों की पैरवी करते। केंद्रीय मांगों के साथ हिमाचल के किसानों की
मांगें भी उठाते। लेकिन प्रदेश के मुख्यमंत्री और भाजपा और संघ से जुड़े किसान संगठनों का आंदोलन के खिलाफ बोलना और लाखों आंदोलनकारी किसानों को यह कहकर नासमझ बताना कि उन्हें राजनैतिक दल गुमराह कर रहे हैं, अन्नदाता का निरादर है। उचित यही होगा कि प्रदेश के सभी किसान संगठन केंद्र सरकार से हिमाचल के
किसानों के हित में केरल की तर्ज़ पर सब्ज़ियों, फलों और मसालों में न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग करें। मक्की, धान और गेहूं के अतिरिक्त उत्पादन की खरीद के लिए प्रदेश में कलेक्शन सेंटर खुलवाने की मांग करें और फल, सब्ज़ियों, मक्की के लिए प्रसंस्करण उद्योग स्थापित करने की मांग करें। उचित दाम न मिल पाने की स्थिति में अपने उत्पाद के सुरक्षित भंडारण के लिए सी.ए. स्टोर, कोल्ड स्टोर, कूलिंग चेम्बर बनवाने की मांग करें। ये अपील प्रदेश के करीब 10 लाख किसान परिवारों की ओर से आपसे भी है औरसभी किसान संगठनों, राजनैतिक दलों और सरकार से भी है।
Dr. Kuldip Singh Tanwar
किसान सभा  ( HKS ). 13:12:2020


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