Friday, 19 September 2025
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जब स्थितियां श्रीलंका जैसी हो रही है तो अनावश्यक नियुक्तियां क्यों?

  • जनता को भरोसे में लेने के लिये श्वेत पत्र जारी क्यों नहीं हो रहा?
  • वित्तीय कुप्रबंधन के लिये जिम्मेदारी तय करने का साहस क्यों नहीं।
  • मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियों का औचित्य क्या है?

शिमला/शैल। मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू प्रदेश की आर्थिक बदहाली पर हर रोज चिन्ता व्यक्त कर रहे हैं। यहां तक कह गये हैं कि प्रदेश के हालात श्रीलंका जैसे होने के कगार पर पहुंच चुके हैं। प्रदेश की आर्थिकी की जानकारी रखने वाले इस बयान से सहमत होंगे यह स्पष्ट है। क्योंकि प्रदेश में लंबे समय से संविधान की अनदेखी कर राज्य की समेकित निधि से अधिक खर्च करने का चलन चला आ रहा है। इस खर्च को अगले कई वर्षों में नियमित किया जाता है। यह चलन शान्ता कुमार के कार्यकाल में ही शुरू हो गया था। हर बजट में आकस्मिक निधि का निश्चित प्रावधान किया जाता था। यह बजट की आवश्यकता होती है। लेकिन कई वर्षों से इस निधि में शून्य बजट का चलन चल रहा है। कैग रिपोर्ट में हर बार यह जिक्र दर्ज रहता है। लेकिन कभी भी किसी भी सरकार में इस पर सदन में पक्ष/विपक्ष ने चर्चा का साहस नही जुटाया है। हर बजट दस्तावेज में यह दर्ज रहता है कि पूंजीगत प्राप्तियां शक्ल ऋण होती है। लेकिन यह ऋण कहां से लिया जाता है? इसकी भरपायी कैसे होती है? क्या इस ऋण को भी शक्ल ऋण में दिखाया जाता है? इस पर भी आज तक किसी ने सदन में कोई चर्चा नही उठाई है। क्योंकि एफ.आर.बी.एम. में एक संशोधन के माध्यम से ऐसी अनियमितता को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया गया है। इसी कारण से तो सदन में कैग रिपोर्टों पर चर्चा नहीं होती। यह सवाल कभी नहीं उठाया जाता है कि कितने विभागीय सचिवों ने फील्ड में जाकर सही स्थितियों का आकलन अपने विभागों की परियोजनाओं को लेकर किया है। जबकि रूल्स ऑफ बिजनैस के तहत यह उनकी जिम्मेदारी होती है। इस तरह की नजरअंदाजीयों का ही परिणाम है कि आज प्रदेश के हालात श्रीलंका जैसे होने की कगार पर पहुंच गये हैं। क्योंकि वित्त सचिवों ने संसाधन जुटाने के नाम पर बजट से पहले या बजट के बाद कर लगाने सेवाओं के शुल्क बढ़ाने और कर्ज लेने का आसान रास्ता अपना लिया है। बजट से पहले और बाद में कर लगाये गये, शुल्क बढ़ाये गये और सदन में कर मुक्त बजट पेश करके अपनी पीठ थपथपाने का श्रेय भी लिया जाता रहा है। कई कई वर्षों तक उपयोगिता प्रमाण पत्र तक जारी नहीं होते हैं लेकिन कभी किसी की जिम्मेदारी तक तय नहीं की गयी। ऐसे ही हर बजट में जोखिम भरी प्रतिभूतियों की सूची दर्ज रहती है। लेकिन जिन सार्वजनिक उपक्रमों के प्रबंधन में ऐसी स्थितियां पैदा हो जाती है वहां पर भी कोई जिम्मेदारी तय नहीं होती। जबकि हर उपक्रम के प्रबंधन में वित्त विभाग की भागीदारी रहती है।
ऐसे दर्जनों बिन्दु है जहां पर वित्तीय अनुशासन जिम्मेदारी की हद तक होना चाहिये लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। वित्तीय नियम है कि सरकार को राजस्व व्यय अपने ही संसाधनों से जुटाना होता है। इस खर्च के लिये कर्ज लेने का कोई नियम नहीं है। कर्ज लेने का नियम स्पष्ट है। उसी कार्य के लिये कर्ज लिया जायेगा जिसमें निवेश के बाद सरकार को आय होना सुनिश्चित होगी। इस नियम की कसौटी पर यदि राज्य के कर्ज भार और उस पर देय ब्याज तथा कर व करेत्तर आय का आकलन किया जाये तो साफ हो जाता है कि इसमें कोई अनुपात बैठता ही नहीं है। यह इसलिये हो रहा है कि राजस्व व्यय के लिये भी कर्ज से खर्च करना पड़ रहा है। यही कारण है कि लिये गये कर्ज का एक बहुत बड़ा हिस्सा कर्ज किस्त चुकाने में खर्च हो रहा है। केंद्र लम्बे अरसे अनुत्पादक खर्चों पर रोक लगाने के निर्देश देता रहा है। प्रदेश की कर्ज लेने की सीमा भी पूरी हो चुकी है। इस पर भी केंद्र का वित्त विभाग चेतावनी जारी कर चुका है। इस परिदृश्य में मुख्यमंत्री की यह आशंका निर्मूल नहीं है कि प्रदेश के हालात कभी भी श्रीलंका जैसे हो सकते हैं। लेकिन इसी परिपेक्ष में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि इस स्थिति से बाहर कैसे निकला जाये। यह भी सवाल उठ रहा है कि क्या राज्य सरकार इस दिशा में कोई गंभीर कदम भी उठा रही है या नहीं। यह सवाल इसलिये प्रसांगिक और महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि जयराम सरकार के कार्यकाल में आयी कैग रिपोर्टों से स्पष्ट हो जाता है कि प्रदेश को केंद्र से कोई अतिरिक्त वित्तीय सहायता नहीं मिली है। बहुत सारी योजनाओं में केंद्र की सहायता शुन्य रही है। कुछ अरसे से तो जी.एस.टी. की प्रतिपूर्ति तक नहीं मिल रही है। इससे स्पष्ट है कि जब भाजपा की सरकार को ही केंद्र से कोई सहायता अलग से नहीं मिल पायी है तो आज कांग्रेस की सरकार को यह मिल पाना कैसे संभव होगा। इसलिए आज सुक्खू सरकार को भी इस व्यवहारिक स्थिति का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा। कांग्रेस ने जब चुनाव से पहले दस गारंटीयां जारी करने पर सोचा होगा तो क्या उस समय प्रदेश की व्यवहारिक स्थिति का ज्ञान नहीं रहा होगा। क्या उस समय इन गारंटीयों को पूरा करने के लिये कर्ज लेने का ही सोचा गया था? जब स्थिति श्रीलंका जैसी होने की स्थितियां बन रही है तो ऐसे में मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियों को कैसे जायज ठहराया जायेगा? प्रदेश की वित्तीय स्थिति पर श्वेत पत्र लाकर जनता को भरोसे में लेने का क्यों नहीं सोचा गया? जब तक जनता को विश्वास में नहीं लिया जायेगा तब तक कोई भी गंभीर कदम उठाना संभव नहीं होगा।

 

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