Friday, 19 September 2025
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सी.पी.एस. मामले पर शिमला से लेकर दिल्ली तक लगी निगाहें

  • सर्वाेच्च न्यायालय में प्रदेश सरकार की ट्रांसफर याचिका अस्वीकार
  • प्रदेश उच्च न्यायालय पहले भी रद्द कर चुका है ऐसी नियुक्तियां
  • जुलाई 2017 में सर्वाेच्च न्यायालय कह चुका है कि प्रदेश विधायिका को ऐसा कानून बनाने का अधिकार ही नहीं

शिमला/शैल। सी.पी.एस. मामला अब फिर प्रदेश उच्च न्यायालय में ही पहुंच गया है क्योंकि सर्वाेच्च न्यायालय ने प्रदेश सरकार की ट्रांसफर याचिका को अस्वीकार कर दिया है। राज्य सरकार ने सर्वाेच्च न्यायालय में याचिका दायर कर यह गुहार लगाई थी कि पंजाब छत्तीसगढ़ और बंगाल की ऐसी ही यचिकाएं सर्वाेच्च न्यायालय में लंबित हैं। इसलिए हिमाचल के मामले को भी सुप्रीम कोर्ट अपने पास लेकर उन मामलों के साथ सुने। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार का यह आग्रह यह कह कर ठुकरा दिया कि हिमाचल का मामला उनसे भिन्न है। इसलिए इसे प्रदेश उच्च न्यायालय ही सुनेगा। इस मामले का सुप्रीम कोर्ट के लिए स्थानांतर का आग्रह प्रदेश उच्च न्यायालय में लगी पेशी से एक दिन पहले किया गया था। जबकि यह मामला कई दिनों से प्रदेश उच्च न्यायालय में चल रहा था। इसलिए सुप्रीम कोर्ट में दायर किये गये आग्रह को मामले को लम्बाने के प्रयास के रूप में देखा गया। अब जब सुप्रीम कोर्ट ने इस आग्रह को अस्वीकार कर दिया है तब यह सवाल उठ रहा है कि सरकार ने ऐसा किया क्यों? स्मरणीय है कि हिमाचल में एक बार पहले भी स्वर्गीय वीरभद्र सिंह के कार्यकाल में मुख्य संसदीय सचिवों और संसदीय सचिवों की नियुक्तियां की गई थी। इन नियुक्तियों को जब प्रदेश हाईकोर्ट मंे चुनौती दी गई थी तब उच्च न्यायालय ने इन्हें सविधान संशोधन के विपरीत प्रकार रद्द कर दिया था।
इसके बाद प्रदेश सरकार ने इस फैसले के खिलाफ सर्वाेच्च न्यायालय में एक एस.एल.पी. फाइल कर दी। एस.एल.पी. फाइल करने के बाद राज्य सरकार ने एक और अधिनियम लाकर ऐसी नियुक्तियों को लाभ के दायरे से बाहर करके पुनः ऐसी नियुक्तियों का रास्ता निकाल लिया। लेकिन सरकार के इस अधिनियम को भी उच्च न्यायालय में चुनौती दे दी गई जो अब तक लंबित चल रही है। लेकिन इसी मामले में प्रदेश सरकार ने जयराम सरकार के कार्यकाल में यह शपथ पत्र उच्च न्यायालय में दायर कर रखा है कि यदि राज्य सरकार ऐसी नियुक्तियां करने का फैसला लेती है तो उसके लिये उच्च न्यायालय से पूर्व अनुमति ली जायेगी इसी कारण से जयराम के कार्यकाल में ऐसी नियुक्तियां नहीं की गयी थी। यह मामला उच्च न्यायालय में अब तक लंबित चल रहा है। दूसरी ओर जो एस.एल.पी. सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई थी उसे 2017 में असम के मामले के साथ टैग करके जुलाई 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दे दिया है कि राज्य विधायिका को ऐसा अधिनियम पारित करने का अधिकार ही नहीं है।
अब प्रदेश उच्च न्यायालय में मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियों के खिलाफ तीन यचिकाएं लंबित चल रही हैं। स्मरणीय है कि मंत्रीमण्डलों का आकार जब-जब राजनीतिक कारणों से आवश्यकता से अधिक बड़ा होने लगा और इस पर जनता में आवाज़ उठने लगी तब संसद ने एक संविधान संशोधन लाकर मंत्रिमण्डल के आकार की सीमा तय कर दी थी। उस सीमा के अनुसार हिमाचल में अधिक से अधिक मुख्यमंत्री सहित केवल 12 मंत्री हो सकते हैं। इस समय सुक्खू मंत्रिमण्डल में मंत्रियों के तो तीन पद खाली चल रहे हैं। जबकि छः मुख्य संसदीय सचिव नियुक्त कर रखे हैं। इन नियुक्तियों को चुनौती देती हुई तीन याचिकाएं उच्च न्यायालय में विचाराधीन चल रही है। एक याचिका भाजपा के एक दर्जन विधायकों द्वारा दायर की गई है। माना जा रहा है कि यह याचिका भाजपा हाईकमान के अनुमोदन के बाद ही डाली गयी है। निश्चित है कि भाजपा लोकसभा चुनावों से पहले इस मामले में फैसला आने का प्रयास करेगी। यह भी तय है कि यह फैसला आने के बाद सरकार और कांग्रेस संगठन के समीकरणों में बदलाव आयेगा। लोकसभा चुनावों के लिये भी सत्ता के इस तरह के उपयोग का मामला एक मुद्दा बनेगा। क्योंकि यह सवाल उठेगा कि जब प्रदेश में ऐसा पूर्व में भी घट चुका था और भाजपा ने इसी कारण से ऐसी नियुक्तियां नहीं की थी तो सुक्खू सरकार को कठिन वित्तीय स्थितियों में भी ऐसी नियुक्तियां करने की राजनीतिक आवश्यकता क्यों खड़ी हो गई थी? आज नेता प्रतिपक्ष तो सीधे आरोप लगा रहे हैं कि छः विधायकों का भविष्य जानबूझकर दाव पर लगा दिया गया है। अब प्रदेश उच्च न्यायालय का फैसला आने में भी लम्बा समय लगने की संभावना नहीं मानी जा रही है। यह फैसला आने का सुक्खू सरकार की सेहत पर क्या असर पड़ेगा इस पर शिमला से लेकर दिल्ली तक सबकी नज़रें लग गयी हैं।

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