Friday, 19 September 2025
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कांग्रेस की इस हार का हिमाचल पर भी असर पड़ेगा

  • सरकार की कठिनाइयां बढ़ेगी
  • सरकार को अपना ही भार उठा पाना कठिन होगा
  • मुख्य संसदीय सचिवों को लेकर लोस चुनावों से पहले फैसला आने की संभावना बढ़ी

शिमला/शैल। क्या तीन राज्यों में कांग्रेस की हार का असर हिमाचल पर भी पड़ेगा यह सवाल इसलिये प्रासंगिक और महत्वपूर्ण है क्योंकि पिछले कुछ अरसे से प्रदेश भाजपा कर्ज के आंकड़ों को और गारंटीयां पूरी न कर पाने को लेकर सुक्खू सरकार पर हमलावर है। कर्ज के आंकड़ों पर जिस तरह की ब्यान बाजी सरकार की ओर से सामने आ रही है उसे स्पष्ट हो जाता है कि प्रशासन 2022-23 और 2023-24 के बजट दस्तावेजों की भी सही जानकारी सरकार के सामने नहीं रख रहा है। जो गारंटीयां चुनावों में दी थी उनको पूरा करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया है। यह सब आम आदमी के सामने है। कर्ज और गारंटीयों पर जो जनधारणा बनती जा रही है उससे स्पष्ट है कि यदि सरकार समय रहते न संभली तो लोकसभा में सुक्खू सरकार के लिये एक भी सीट जीत पाना संभव नहीं होगा। वैसे सुक्खू सरकार और प्रदेश भाजपा में बीते एक वर्ष में इतने अच्छे रिश्ते रहे हैं कि कांग्रेस कार्यकर्ताओं को तो सरकार से कोई नाराजगी हो सकती है लेकिन किसी भाजपाई को नहीं। क्योंकि व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर कोई बड़ा प्रशासनिक फेरबदल किया ही नहीं गया। जब प्रशासन में काम करने वाले पुराने ही अधिकारी सुरक्षित रहे तो भाजपाइयों को नाराजगी क्यों होती। जब नेता प्रतिपक्ष का चयन विधायकों की शपथ से पहले ही प्रोटैम स्पीकर के हाथों ही हो जाये तो फिर विपक्ष को कोई नाराजगी कैसे हो सकती है। इन्हीं रिश्तों और व्यवस्था परिवर्तन का परिणाम है कि पूर्व सरकार के खिलाफ कांग्रेस द्वारा चुनावों के दौरान जारी किया गया आरोप पत्र आज तक विजिलैन्स में नहीं भेजा गया है। इस सरकार का पूर्व सरकार के खिलाफ सबसे बड़ा आरोप वित्तीय कुप्रबंधन को लेकर था। इस कुप्रबंधन पर लोकाचार निभाते हुये एक श्वेत पत्र भी लाया गया। लेकिन इस श्वेत पत्र पर कोई दाग न पड़ जाये इसलिए किसी कारवाई के कोई आदेश तक नहीं हुये। इससे वित्तीय कुप्रबंधन के आरोपों का सियासी पूर्वाग्रह ही सामने आता है। क्योंकि गंभीर होने पर अपने फिजूल खर्चाे पर रोक लगानी पड़ती है। जो मित्रों के दबाव में नहीं लग सकी। इसके अतिरिक्त जो मुद्दे सरकार ने आते ही भाजपा को थमा दिये वह अब उच्च न्यायालय तक पहुंच चुके है। उनमें अदालत से फैसला आने ही हैं। स्मरणीय है कि सरकार ने शपथ ग्रहण के 24 घंटे के भीतर ही पिछली सरकार द्वारा अंतिम छः माह के लिये फैसला पलटते हुए छः सौ से अधिक संस्थान बन्द कर दिये थे। इस पर आरोप लगा था की राजनीतिक द्वेष से ऐसा फैसला लिया गया है। क्योंकि इतने अल्प समय में छः सौ मामलों की गुण दोष के आधार पर समीक्षा हो पाना संभव ही नहीं है। यह मामला मंत्रिमंडल विस्तार से पहले ही पूरे प्रदेश में मुद्दा बना दिया गया था। मंत्रिमंडल विस्तार के बाद यह मामला उच्च न्यायालय में पहुंचा दिया गया है और लम्बित चल रहा है। आज की बदली परिस्थितियों में कौन सा विधायक यह संस्थान खोले जाने का विरोध कर पायेगा यह सामान्य राजनीतिक समझ का विषय है। इसी के साथ इस सरकार ने मंत्रिमंडल विस्तार से एक घंटा पहले छःमुख्य संसदीय सचिवों को शपथ दिलाकर सबको चौंका दिया था। इन नियुक्तियों को तीन अलग- अलग याचिकाओं के माध्यम से उच्च न्यायालय में चुनौती मिल चुकी है। इसमें एक याचिका एक दर्जन भाजपा विधायकों द्वारा दायर की गयी है। यह याचिकाएं उच्च न्यायालय में लम्बित चल रही है। इससे पहले भी स्व. वीरभद्र के कार्यकाल में भी ऐसी नियुक्तियां की गयी थी उन्हें उच्च न्यायालय में असंवैधानिक ठहराते हुए तुरन्त प्रभाव से रद्द कर दिया गया था। उच्च न्यायालय के इस फैसले को एस.एल.पी. के माध्यम से सर्वाेच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी थी। जिस पर असम के मामले के साथ टैग होकर फैसला जुलाई 2017 में आ गया था। सर्वाेच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि राज्य विधायिका को ऐसा कानून बनाने का कोई अधिकार ही नहीं है। सर्वाेच्च न्यायालय के स्पष्ट फैसले के बावजूद ऐसी नियुक्तियां किये जाने का कोई कारण प्रदेश की जनता के सामने ही नहीं आ पाया है। जनता इसे अवांछित बोझ मान रही है। अब इस मामले में उच्च न्यायालय का फैसला जल्द आने की संभावना बढ़ गई है स्वभाविक है कि एक दर्जन भाजपा विधायकों की याचिका को भाजपा हाईकमान की सहमति रही ही होगी। इसमें फैसला आने पर यह तो माना ही जा रहा है कि पूर्व की तर्ज पर यह नियुक्तियां भी असंवैधानिक करार दी जायेगी। लेकिन यह संभावना भी नकारी नहीं जा रही है कि इनके आचरण के परिदृश्य में कहीं इन्हें विधायकी से भी हाथ न धोना पड़ जाये। भाजपा इस मामले का पराक्षेप हर हालत में लोकसभा चुनाव से पहले करवाने के लिए हर संभव कानूनी कदम उठायेगी यह तय है। इस फैसले से कांग्रेस संगठन और सरकार के समीकरणों में बदलाव आयेगा। मंत्रिमंडल विस्तार और निगमों बोर्डों में ताजपोशियां तथा क्षेत्रीय असंतुलन जो अनचाहे ही खड़ा हो गया है ऐसे मुद्दे होंगे जो सरकार की सेहत पर असर डालेंगे ही। इस वस्तुस्थिति में लोस चुनाव के उम्मीदवारों का चयन भी आसान नहीं होगा।

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