शिमला/शैल। जयराम सरकार ने अपने पहले ही बजट सत्र में पार्टी के मुख्य सचेतक और उप सचेतक को कैबिनेट मन्त्री और राज्य मन्त्री का दर्जा तथा वेतन - भत्ते व अन्य सुविधायें देने का विधेयक सदन मेें लाकर उसे पारित करवा लिया था। इस विधेयक को लेकर कांग्रेस ने सदन में अपना कड़ा एतराज जताया था। कांग्रेस के साथ सीपीएम ने भी एतराज जताया था। केन्द्र मेें सचेतकों को कुछ सुविधायें अवश्य दी गयी हैं लेकिन मन्त्री का दर्जा नही दिया गया है। ऐसा विधेयक प्रदेश में पहली बार लाया गया है। माना जा रहा था कि विधायक रमेश धवाला और नरेन्द्र बरागटा को यह पद दिये जा रहे हैं। क्योंकि यह दोनों धूमल शासन में मन्त्री रह चुके हैं लेकिन किन्ही कारणों से इस बार इन्हे मन्त्री नही बनाया जा सका और इस तरह राजनीतिक समीकरणों में जो असन्तुलन आ गया था उसे सुलझाने के लिये यह राजनीतिक कदम उठाया गया था।
लेकिन जिस राजनीतिक शीघ्रता के साथ यह विधेयक लाया गया था उसको सामने रखते हुए इस विधेयक को अब तक महामहिम राज्यपाल की स्वीकृति मिलने के बाद कानून की शक्ल ले लेनी चाहिये थी। बजट सत्र पांच अप्रैल को समाप्त हुआ था और उसके बाद सचिव लाॅ के सर्टीफिकेट के साथ राज्यपाल को अनुमोदन को चला जाना चाहिये था। लेकिन अभी तक ऐसा नही हो पाया हैं यह विधेयक अभी तक राजभवन पहुंचा ही नही है। इसी कारण से अभी तक कोई भी विधायक अब तक सचेतक या उप-सचेतक नही बन पाया है।
इसी तरह सरकार इस बजट सत्र में टीसीपी एक्ट में भी एक संशोधन लेकर आयी थी। यह संशोधन भी सदन से पारित हो गया था। माना जा रहा था कि इस संशोधन को राजभवन की स्वीकृति मिलने के बाद कई अवैध निर्माणकारों को राहत मिल जायेगी। लेकिन यह संशोधित विधेयक भी अभी तक राजभवन नही पहुंच पाया है। सचिव लाॅ की ओर से इस विधेयक को भी अभी तक राज्यपाल की स्वीकृति के लिये नहीं भेजा जा सका है वैसे अभी तक बजट सत्र में जो भी विधेयक सदन से पारित हुए थे उनमें से किसी को भी सरकार की ओर से राजभवन को नही भेजा गया है। एक माह से अधिक का समय हो गया है बजट सत्र को हुए। विधेयकों को राज्यपाल की स्वीकृति के लिये भेजने में सामान्यतः एक सप्ताह का समय लगता है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि इन विधेयकों को राजभवन भेजने की तत्परता क्यों नही दिखायी जा रही है। क्या सरकार इन मुद्दों पर अब गंभीर नही रह गयी है या सरकार को यह लग रहा है कि जैसे ही इन विधेयकों को राज्यपाल की अनुमति मिल जाती है तब कोई भी इन्हे उच्च न्यायालय में चुनौती दे देगा। क्योंकि जब वीरभद्र शासनकाल में भी टीसीपी एक्ट में 2016 में संशोधन किया गया था तब उस संशोधन को उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया था। ऐसे ही सचेतकों के मामले को लेकर हो रहा है। क्योंकि जब किसी विधायक को सचेतक बनाकर मन्त्री के बराबर वेतन भत्ते और अन्य सुविधायें प्रदान कर दी जायेंगी तब वह निश्चित रूप से लाभ के पद के दायरे में आ जायेगा। क्योंकि सचेतक को मन्त्री का दर्जा दिये जाने के बाद भी उन्हे मन्त्री की तरह पद और गोपनीयता की शपथ नही दिलाई जा सकती है। इस परिदृश्य में इन पक्षों को गंभीरता से देखने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि यदि इन विधेयकों को राज्यपाल की अनुमति मिल भी जाती है तो भी इनसे उस राजनीतिक उद्येश्य की पूर्ति नही हो पायेगी जिसके लिये यह विधेयक लाये गये हैं। अब इस पर सबकी निगाहें लगी हुई हैं कि क्या यह विधेयक राजभवन की स्वीकृति के लिये भेजे जाते हैं या इन्हे वैसे ही ठण्डे बस्ते मे रहने दिया जाता है।