शिमला/शैल। 1985 बैच के आईएएस अधिकारी बी.के.अग्रवाल की बतौर मुख्य सचिव नियुक्ति को जयराम का पहला सराहनीय फैसला माना जा रहा है। क्योंकि 1982 बैच के विनित चौधरी की सेवानिवृति के बाद प्रदेश सरकार के पास 1983 बैच में चार और 1984 बैच में दो अधिकारी थे। इन छः में से पांच इस समय केन्द्र सरकार में प्रतिनियुक्ति पर हैं और केवल वी.सी. फारखा ही प्रदेश में तैनात थे। वीसी फारखा वीरभद्र शासन में मुख्य सचिव रह चुके हैं बल्कि इस नियुक्ति के विरोध में ही विनित चौधरी, दीपक सानन और उपमा चौधरी कैट में गये थे और वरियता को नज़रअन्दाज किये जाने का आरोप लगाया था। 1983 और 1984 बैच के प्रदेश के सारे अधिकारी अरविन्द मैहता को छोड़कर 2018 और 2019 में सेवानिवृत हो जायेंगें। अरविन्द मैहता की सेवा निवृति 2020 में है। इनके बाद 1985 बैच की बारी आती है और उसमें बी.के. अग्रवाल की सेवानिवृति 2021 में है। अग्रवाल अपने बैच में प्रदेश में पहले स्थान पर हैं। इस नाते प्रदेश में उपलब्ध अधिकारियों में कोई भी अपनी वरियता की नजर अन्दाजी का आरोप नही लगा सकता है। इस सारी वस्तुस्थिति को सामने रखते हुए यह आक्षेप भी नही लग पा रहा है कि अग्रवाल, शान्ता, धूमल या नड्डा किसी एक के दवाब में लगाये गये हैं। अग्रवाल संघ की भी पहली पंसद थे और संघ के आदेश तो सबको मानना ही पड़ता है। इस तरह कुल मिलाकर अग्रवाल की नियुक्ति को वर्तमान परिदृश्य में सही ठहराया जा रहा है।
अब अग्रवाल की नियुक्ति का प्रदेश के प्रशासन और राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा यह एक बड़ा सवाल विश्लेष्कों के सामने रहेगा। अग्रवाल की नियुक्ति मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर और प्रदेश संघ प्रमुख संजीवन दोनों का सांझा फैसला माना जा रहा है। संघ और मुख्यमन्त्री के लिये आने वाला लोकसभा चुनाव पहला राजनीतिक बड़ा टेस्ट होना जा रहा है। इस चुनाव का मुख्यमन्त्री पर अभी से कितना दवाब है इसका अन्दाजा नरेन्द्र बरागटा को मुख्य सचेतक बनाने और राजीव बिन्दल के खिलाफ चल रहे अपराधिक मामले को वापिस लेने के लिये अदालत में आग्रह दायर करने से ही लगाया जा सकता है। जबकि नियमानुसार सरकार के यह दोनां ही फैसले गलत हैं। इन फैसलों से सरकार और मुख्यमन्त्री दोनों की छवि को नुकसान पंहुचा है। क्योंकि बरागटा का मामला जब भी अदालत में पंहुचेगा तो निश्चित है कि यह लाभ के पद के दायरे में आयेगा ही। इसी तरह बिन्दल मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के परिदृश्य में अदालत को यहआग्रह स्वीकार कर पाना बहुत ज्यादा आसान नही होगा।अदालत इन मामलों में समय तो कटवा सकती है लेकिन शायद राहत नही दे पायेगी। कानून के जानकारों का यह मानना है।
इसी के साथ अभी जिला परिषद कुल्लु, कांगड़ा, मण्डी और बीडीसी सुजानपुर के चुनावों में जो कुछ घटा है वह अपने में एक बड़ी राजनीतिक चेतावनी है। क्योंकि सरकार होने के बावजूद यह चुनाव हारना पार्टी के भीतरी समीकरणों और साथ ही जनता में बनती जा रही सरकार की छवि पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। लोकसभा चुनावों में पार्टी के उम्मीदवार वर्तमान के चारों सासंद फिर से हो जायेंगे यह इनमें से कुछ बदलेंगे यह तस्वीर भी अभी तक साफ नही है। लेकिन मण्डी से जिस तरह पंडित सुखराम की ओर से यह आया है कि यदि उनके पौत्र को पार्टी उम्मीदवार बनाती है तभी वह चुनावों में सक्रिय भूमिका निभायेंगे अन्यथा नही। फिर इसी के साथ यह जोड़ना कि तेरह बार वह और चार बार उनका बेटा यहां का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं उनकी नीयत और नीति को पूरी तरह स्पष्ट कर देता है। यहां पंडित सुखराम के तेवरों का जो अप्रत्यक्ष जवाब मुख्यमन्त्री की पत्नी डा. साधना ठाकुर का नाम उछाल कर दिया जा रहा है वह भी विश्लेष्कों की नज़र में कोई बहुत बड़ी रणनीतिक समझदारी नही मानी जा रही है। क्योंकि यदि कल को सही में डा. साधना को चुनाव लड़ना पड़ जाता है तो फिर यह जीत हासिल करना पार्टी से ज्यादा मुख्यमन्त्री की अपनी कसौटी बन जायेगा। जबकि जंजैहली में एसडीएम कार्यालय को लेकर अपने ही गृहक्षेत्र में जयराम जो कुछ झेल चुके हैं उसकी पराकाष्ठा धूमल के उस ब्यान तक पंहुच गयी थी जब उन्हे यह कहना पड़ा था कि मुख्यमन्त्री चाहे तो उनकी सीआईडी जांच करवा सकते हैं। इस सबकी पुनरावृति कब हो जाये यह कहना आसान नही है।
इसी के साथ जो संकेत मानसून सत्रा में कांगड़ा से विधायक रमेश धवाला और राकेश पठानिया के तेवरों से उभरें हैं उन्हे भी हल्के से लेना राजनीतिक नासमझी होगा। माना जा रहा है कि कांगड़ा जिला परिषद के वाईस चेयरमैन के पद पर मिली हार ऐसे ही तेवरों का परिणाम है। फिर जब विधानसभा में बजट सत्र में सचेतकों का अधिनियम पारित करवाया गया था उस समय धवाला को मुख्य सचेतक बनाया परिचारित हुआ था। लेकिन अब जब बरागटा को बनाया गया तब धवाला की यह प्रतिक्रिया आयी कि उन्हें उपमुख्य सचेतक का पद ऑफर किया गया था जिसे उन्होने बरागटा से वरिष्ठ होने के कारण स्वीकार नही किया। धवाला की इस प्रतिक्रिया पर संगठन और सरकार की ओर से कोई जवाब नही आया है। ऐसे में अन्दाजा लगाया जा सकता है कि आने वाले चुनावों में धवाला कितना सक्रिय होकर पार्टी के लिये काम कर पायेंगे। अभी बरागटा की नियुक्ति के साथ ही यह भी प्रचारित हुआ था कि निगमों/बोर्डो में नियुक्तियों का मार्ग भी प्रशस्त हो गया है। लेकिन ऐसा अभी तक हो नही पाया है। ऐसे संकेत उभर रहे हैं कि यह ताजपोशीयां भी लोकसभा चुनावों तक रूक सकती हैं। इस तरह जो राजनीतिक परिदृश्य अभी तक सामने आया है वह लोकसभा चुनावों में सफलता सुनिश्चित करने की दिशा में कोई सकारात्मक संकेत नही दे रहा है।
इसी तरह प्रशासनिक परिदृश्य में जहां अग्रवाल की नियुक्ति को सही फैसला माना जा रहा है वहीं पर इसे एक चुनौती भी माना जा रहा है। क्योंकि अभी प्रदेश के प्रशासनिक ट्रिब्यूनल में सदस्यों के दो पद भरे जाने हैं। इन पदों को भरने की प्रक्रिया को इसके अतिरिक्त रेरा के गठन में भी मुख्य सचिव की भूमिका रहती है। प्रदेश में फूड कमीशनर का पद भी स्थायी रूप से नही भरा गया है। इन सारे पदों को कितनी जल्दी भरा जाता है और इनमें मुख्य सचिव की मुख्यमन्त्री को क्या मंत्रणा रहती है यह सब अग्रवाल की सफलता के पहले कदम माने जायेंगे। इसी के साथ यह भी महत्वपूर्ण रहेगा कि वह अधिकारियों में काम का बंटवारा कैसे करते हैं। इसके लिये कितनी जल्दी और कितना बड़ा प्रशासनिक फेरबदल वह कर पाते हैं यह देखना भी दिलचस्प होगा। अग्रवाल अपने पद पर जून 2021 तक बने रहेंगे और 2022 में विधानसभा चुनाव होंगे। अतिरिक्त मुख्य सचिव वित 2023 तक पद पर बने रहेंगे ऐसे में यह एक अच्छा संयोग माना जा रहा है कि मुख्यमन्त्री, मुख्य सचिव और सचिव वित में एक लम्बे समय तक तालमेल बना रहेगा। क्योंकि राजनीति पर सबसे अधिक प्रभाव प्रशासन डालता है जबकि सामने जिम्मेदारी राजनीति नेतृत्व की रहती है। ऐसे में यदि इन शीर्ष लोगों में सकारात्मक तालमेल रहता है तभी प्रदेश का हित होता है। आज जो प्रदेश कर्ज के गर्त में फंसा हुआ है वह इसी कारण से शीर्ष में किसी ने भी शायद कोई तर्क एक दूसरे के सामने रखा ही नही। यह लोग भूल गये कि जब बजीर राजा की हां में हां मिला दे तो उस राज्य का पतन होते देर नही लगती है यह एक स्थापित सत्य है।