Friday, 19 September 2025
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वीरभद्र की जयराम के प्रति नरमी के बाद लोस चुनावों में उनकी संभावित भूमिका पर उठने लगे सवाल

शिमला/शैल। लोकसभा चुनाव अगले वर्ष मई में होंगे। इन चुनावों की तैयारियां राजनीतिक दलों ने अभी से शुरू कर दी हैं। इन तैयारियों के तहत चुनावों के लिये संभावित उम्मीदवारों को चिन्हित करना और चुनावी मुद्दों को तलाशने का काम चल रहा है। इस प्रक्रिया में यह स्वभाविक है कि केन्द्र से लेकर राज्यों तक हर जगह सत्तारूढ़ सरकारों का कामकाज ही केन्द्रिय मुद्दा रहेगा क्योंकि हर राजनीतिक दल चुनावों से पहले जनता के सामने लम्बे चैड़े सपने परोसता है। जनता इन सपनों/वायदों पर भरोसा जताकर किसी दल को सत्ता सौंपती है। चुनावी वायदों के बाद हर साल बजट में भी यही सपने बेचे जाते हैं। इन सारे सपनों की व्यवहारिकता का आकलन फिर आकर चुनावों में ही होता है तब फिर से जनता को अपने प्रतिनिधियों से कुछ पूछने का मौका हालिस होता है। इस संद्धर्भ में जनता को जागरूक करने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी विपक्ष की रहती है। यह जिम्मेदारी निभाते हुए कई बार विपक्ष बीच-बीच मे सत्तारूढ़ सरकार के खिलाफ राज्यपाल से लेकर राष्ट्रपति तक को आरोप पत्र सौंपता है। यह आरोप पत्र जनता को जागरूक रखने में बड़ी अहम भूमिका निभाते हैं। इसमें मीडिया की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण रहती है। 

इस परिदृश्य में यदि प्रदेश की राजनीति का आकलन किया जाये तो यहां पर दो ही राजनीतिक दलों कांग्रेस और भाजपा के बीच ही लगभग सबकुछ केन्द्रित हो कर रह गया है। यहां का अधिकांश मीडिया भी सुविधा भोगी हो चुका है। उसकी प्राथमिकता भी जन सरोकारों की जगह सत्ता सरोकार होकर रह गये हैं। अन्य राजनीतिक दल भी लगभग तटस्थता की भूमिका में है क्योंकि उनके लिये अपने होने का अहसास करना ही एक बड़ा संकट हो गया है। इस वस्तुस्थिति में प्रदेश कांग्रेस पर ही सबसे अधिक जिम्मेदारी आ खड़ी होती है लेकिन क्या कांग्रेस इस जिम्मेदारी के प्रति ईमानदार सिद्ध हो पा रही है। कांग्रेस के हाथ में सबसे अधिक वक्त तक प्रदेश की सत्ता रही है। अभी तक भी भाजपा ने कांग्रेस से ही सत्ता छिनी है। कांग्रेस के वीरभद्र छः बार प्रदेश के मुख्यमन्त्री रह चुके हैं। प्रदेश में आज कोई भी दूसरा नेता किसी भी दल में ऐसा नही है जिसका राजनीतिक कद वीरभद्र के बराबर हो। लेकिन क्या वीरभद्र ने अपने ही दल में किसी को अपना उत्तराधिकारी प्रोजैक्ट करने को प्रयास किया है। आज भी वह सातवीं बार प्रदेश का मुख्यमन्त्री बनने का मोह पाले हुए हैं। उन्हे कांग्रेस के संगठन मे तो युवा नेतृत्व चाहिये लेकिन मुख्यमन्त्री बनने के लिये नहीं। आज यह सारे सवाल उठने शुरू हो गये हैं कि आने वाले लोकसभा चुनावों में वीरभद्र की भूमिका क्या रहने वाली है। क्योंकि वह अगला लोकसभा का चुनाव नही लड़ना चाहते हैं यह वह पूरी स्पष्टता से कह चुक हैं बल्कि यहां तक कह चुके हैं कि उनके परिवार से कोई भी यह चुनाव नही लड़ेगा। इसी के साथ वह पार्टी को जीताने के लिये सक्रिय योगदान देने ओर सातवीं बार मुख्यमन्त्री होने की भी बात कह चुके हैं। राजनीतिक विश्लेष्कों की नजर में इस तरह के ब्यानों से अन्त विरोध ही झलकता है। इस तरह के अन्त विरोध के दो ही अर्थ निकलते हैं कि या तो आप अपरोक्ष में पार्टी पर दवाब बना रहे हैं कि वह आपकी शर्ते माने या फिर आप सत्तारूढ़ सरकार के दवाब में चल रहे हैं।
इस समय पार्टी अध्यक्ष सुक्खु जयराम सरकार के प्रति काफी आक्रामक दिख रहे हैं। जब उन्होने सरकार के खिलाफ आरोपपत्र लाने की बात की तो उस पर सत्ता पक्ष की ओर से काफी तीव्र प्रतिक्रियाएं आयी। सुक्खु की ही आक्रामकता को आगे बढ़ाते हुए नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री ने जयराम सरकार से राष्ट्रीय उच्च मार्गों और केन्द्र से विभिन्न योजनाओं के नाम पर नौ हजार करोड़ मिलने के दावों की तफसील मांग कर सरकार को और असहज कर दिया है। क्योंकि इनमें दावों के अतिरिक्त धरातल पर बहुत कुछ है ही नहीं। ऐसे में जब पार्टी अध्यक्ष और कांग्रेस विधायक के नेता दोनों ही पूरी आक्रामकता में चल रहे हों तब वीरभद्र जैसे नेता का मुख्यमन्त्री को यह अभय दान देना कि अभी उनके कामकाज के आकलन का सही समय नही है। उनकी संभावित भूमिका पर कई सवाल खड़े कर जाता है। क्योंकि इस समय कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व जिस कदर मोदी और उनकी सरकार के प्रति आक्रामक है उसको प्रदेशों में भी आगे बढ़ाने की आवश्यकता है और यह जिम्मेदारी हिमाचल के संद्धर्भ में वीरभद्र पर ही सबसे पहले आती है क्योंकि वही छः बार के मुख्यमन्त्री हैं। लेकिन वीरभद्र के ब्यानों से यही झलक रहा है कि वह अभी जयराम का विरोध करने के लिये तैयार नही हो पाय रहे हैं। क्या सही में अभी जयराम के कामकाज का आकलन करना जल्दीबाजी है यदि इस पर निष्पक्षता से विचार किया जाये तो अधिकांश लोग वीरभद्र सिंह की इस धारणा से सहमत नही होंगे। क्योंकि आकलन जयराम के व्यक्तिगत- पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन का नही किया जाना है। इस दृष्टि से वह एक सरल व्यक्ति हैं लेकिन आकलन मुख्यमन्त्री का होना है क्योंकि बतौर मुख्यमन्त्री उनके एक एक फैसले का पूरे प्रदेश पर असर होगा। अभी दस माह के कार्यकाल में ही सरकार को लगभग हर माह कर्ज लेना पड़ा है। प्रदेश की वित्तिय स्थिति क्या है? वीरभद्र किस दिशा -दशा में सरकारी कोष को छोड़ कर गये हैं। इसकी जानकारी प्रदेश की जनता को देना जयराम सरकार की जिम्मेदारी थी। यदि यह स्थिति चिन्ताजनक थी तो इस पर सरकार को श्वेत पत्र जारी करना चाहिये था लेकिन ऐसा हुआ नही है। बल्कि जिस अधिकारी ने धूमल- वीरभद्र दोनों के कार्यकाल में वित्त सचिव की जिम्मेदारी निभाई वह आज जयराम के प्रधान सचिव होकर और भी महत्वपूर्ण भूमिका में आ गये हैं। इससे यही प्रमाणित होता है कि विरासत में जयराम को सब कुछ सही दिशा में मिला है। ऐसे में आज जो हर माह कर्ज लेना पड़ रहा है और परिवहन में किराये बढ़ाने पड़े हैं वह सब इसी सरकार के प्रबन्ध का परिणाम है। जिसे किसी भी तर्क पर जायज नही ठहराया जा सकता है। भ्रष्टाचार के प्रति सरकार की गंभीरता पर अभी से गंभीर प्रश्नचिन्ह लग चुके हैं। कुल मिला कर यह कहना गलत है कि मुख्यमन्त्री का आकलन करना अभी जल्दबाजी है।
ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि वीरभद्र जयराम के प्रति इतने नरम होकर क्यों चल रहे हैं। राजनीतिक और प्रशासनिक हल्कों में यह चर्चा आम हो गयी है कि केन्द्र सरकार वीरभद्र के मनीलाॅंड्रिंग मामले को उन पर अब भी दवाब बनाये हुए है। पिछले दिनों जब ईडी ने वीरभद्र के कारोबारी मित्र वक्कामुल्ला चन्द्र शेखर की इस मामले में जमानत रद्द करवाने के लिये दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका डाली तब से यह चर्चा जोरों पर है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने ईडी के आग्रह को अस्वीकार करते हुए उल्टा यह पूछ लिया कि आप सहअभियुक्तों के प्रति तो इतने सक्रय हैं लेकिन मुख्य अभियुक्त के प्रति एकदम चुप क्यों है। इसका ईडी के पास कोई जवाब नही था और उसने यह याचिका वापिस ले ली। यदि कहीं उच्च न्यायालय इस याचिका को स्वीकार कर लेता तो फिर से अब तक वीरभद्र से पूछताछ किये जाने का दौर शुरू हो चुका होता और यदि ऐसा हो जाता तो पूरा राजनीतिक परिदृश्य ही बदल जाता। इसी तरह सर्वोच्च न्यायालय के राज कुमार, राजेन्द्र सिंह बनाम एसजेवीएनएल मामले में आये फैसले से भी स्थिति असहज हुई है। इस फैसले पर अमल जयराम सरकार को करना है और अभी तक कोई कदम नहीं उठाये गये हैं। माना जा रहा है कि इन फैसलों के परिदृश्यों में ही वीरभद्र का स्टैण्ड स्पष्ट नही हो पा रहा है।

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