शिमला/शैल। हिमाचल प्रदेश सरकार का कर्जभार 52000 करोड़ तक पहुंच गया है। इस बढ़ते कर्जभार पर अब आम आदमी भी चिन्ता व्यक्त करने लग गया है। क्योंकि जब सरकार को कर्ज उठाने की नौबत आ जाती है तब उसका असर हर चीज पर पड़ता है यह एक स्थापित सच है। फिर अगर कर्ज लेकर कोई स्थायी संपत्ति बनायी जाये और उससे भविष्य में आत्म निर्भर होने का साधन बने तब यह कर्ज चिन्ता का विषय नही होता है। यदि कर्ज से स्थायी आय के स्त्रोत न बने तो यह कर्ज गंभीर चिन्ता और चिन्तन का विषय बन जाता है। 31 मार्च को समाप्त होने जा रहे वित्त वर्ष 2018-1़9 का सरकार का कुल खर्च अनुपूरक मांगो को डालकर 44000 करोड़ से थोड़ा अधिक है। इस खर्च के मुकाबले इस वर्ष की सरकार की कुल आय 30,000 हजार करोड़ से कुछ अधिक है। इस तरह सरकार के आय और व्यय में 14000 करोड़ का अन्तर है। स्वभाविक है कि इस खर्च को पूरा करने के लिये सरकार के पास कर्ज लेने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रह जाता है। लेकिन सरकार बनने के बाद जिस तरह का खर्च यह सरकार करती आ रही है उसको लेकर समय-समय पर सवाल भी उठते आ रहे हैं। जिनमें कर्ज लेकर आरामदेह मंहगी गाड़ियां खरीदे जाने का मुद्दा प्रमुखता से उठता रहा है। कर्ज लेने के बावजूद सरकार बेरोजगारों को स्थायी नौकरीयां नही दे पा रही है। नौकरीयों में अभी भी आऊट सोर्स, आर के एस और पीटीए जैसी योजनाएं चलानी पड़ रही है। क्योंकि इनमें नियमित नौकरी पर मिलने वाले वेतन के आधे से भी कम वेतन देकर काम चलाया जा रहा है।
ऐसे में यदि यह सवाल उठाया जाये कि इतना कर्ज लेकर सरकार ने आय के कौन से स्थायी साधन खड़े किये हैं तो शायद इसका कोई बड़ा प्रमाणिक जवाब सरकार के पास नही है। सरकार को टैक्स के रूप में जो कुल आय हो रही है उसकी स्थिति यह है
कर आय के बाद सरकार को गैर करों से भी आय होती है। उसकी स्थिति इस प्रकार है।
इस तरह टैक्स और नाॅन टैक्स दोनों का आंकलन करने से स्पष्ट हो जाता है कि सरकार आय के स्थायी साधन बढ़ाने में कोई बड़ा काम नही कर पायी है। एक समय सरकार ने पनवि़द्युत परियोजनाओं को यह माना था कि आने वाले समय में अकेले विद्युत से ही ही प्रदेश आत्मनिर्भर हो जायेगा लेकिन सरकार का रिकार्ड दिखाता है कि विद्युत क्षेत्र से हर वर्ष टैक्स और गैर टैक्स राजस्व में कमी आती जा रही है। प्रदेश सरकार की अपनी ही परियोजनाओं में हर वर्ष हजारों घण्टों शटडाऊन हो रहा है। सरकार और विजिलैन्स तक इसकी शिकयतें गयी हुई हैं लेकिन इसकी जांच करने के लिये कोई तैयार नही है। जबकि इस शटडाऊन से हर दिन करोड़ो के राजस्व का नुकसान हो रहा है।
दूसरी ओर सरकार का वित्तीय प्रबन्धन सरकार की नीयत और नीति पर भी बहुत गंभीर प्रश्नचिन्ह लगाता है। संविधान की धारा 204(3) के तहत राज्य की समेकित निधि से अधिक एक पैसा भी खर्च नही किया सकता है। यदि किन्ही अपरिहार्य कारणों से सरकार को इस निधि से अधिक खर्च करना पड़ जाये तो ऐसे खर्च को संविधान की धारा 205 के तहत एकदम सदन से अनुमोदित करवाना पड़ता है। कैग की 31 मार्च 2017 तक की रिपोर्ट के मुताबिक 2011-12 से लेकर 2015-16 तक हुए ऐसे खर्च को सितम्बर 2017 तक भी अनुमोदित नहीं करवाया गया था। कैग की रिपोर्ट से स्पष्ट हो जाता है कि इस संद्धर्भ में सरकार संविधान की भी अनुपालना नहीं कर रही है। सरकार का कर्ज जीडीपी के अनुपात में तय सीमा से बढ़ता जा रहा है इसके लिये भारत सरकार का वित्त विभाग 2016-17 में प्रदेश सरकार को चेतावनी पत्र तक जारी कर चुका है। इस पत्र को शैल अपने पाठकों के सामने पहले ही रख चुका है। इस अधिक खर्च को लेकर कैग की टिप्पणी भी पाठकों के सामने रखी जा रही है।
As per Article 204 (3) of the Constitution of India, no money shall be withdrwwn from Consolidated fund of the State except under appropriation made by law passed in accordance with the provisions of this article.
Not withstanding the above excess expenditure over budget provision increased by Rs.189.18 crore ( 6.64 percent) from Rs. 2.848.43 crore in 2015-16 to Rs.3,037.61 crore ( includes Rs.2,890.50 crore relating to UDAY scheme) in 2016-17 indicating that budgetary estimates were not reviewed properly. Details of various grants / appropriations where aggregate expenditure (Rs. 10,803.41 crore) exceeded by Rs. 3,037.22 crore from the approved provisions in four cases (Rs. one crore or more in each case ) are given in Appendix 2.1
Firm measures need to be insitutied against the defaulting departments to avoid excess expenditure. There is no cogent reason for the inevitability of excess expenditure when Government gets opportunities to present the supplementary Demands for Grants during the three sessions of Legislature in a year. The exceeding of Budgetary Grant is the result of bad planning, lack of foresight and ineffective monitoring on the part of budget estimates as well as supplementary Demands for Grants.
2.3.1.1 Excess over provisions requiring regularization -As per Article 205 of the Constitution of India it is mandatory for a state Government to get the excess over a grant/appropriation regularised by the State Legislature. Although no time limit for rgularisation of excess expenditure is done after the prescribed under the Article , the regularization of excess expenditure is done after the completion of discussions on the Appropriation Accounts by the public Accounts Committee (PAC) However, the excess expenditure amounting to Rs.6,364.57 crore (Appendix 2.2) for the years 2011-12 to 2015-16 was yet to be regularized as of September 2017. The excess expenditure of Rs. 3,037.61 crore (Appendix 2.3) incurred in five grants and three appropriations during the years 2016-17 also requires regularisation.
कैग की इन टिप्पणीयों से सरकार के बजट प्रबन्धन पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं यह स्पष्ट हो जाता है। सरकार हर माह कर्ज ले रही है लेकिन यह कर्ज खर्च कहां किया जा रहा है इसकी जानकारी प्रदेश की जनता को नहीं दी जा रही है। यदि प्रदेश की वित्तीय स्थिति पिछली सरकारों के कार्यों और नीतियों के कारण बिगड़ी है तो उसके लिये यह सरकार इस संबंध में एक श्वेतपत्र जारी करके प्रदेश की जनता को विश्वास में ले सकती थी। लेकिन सरकार ने ऐसा नही किया है जिसका सीधा सा अर्थ है कि वर्तमान स्थितियों के लिये यही सरकार जिम्मेदार है। ऐसे में इस लगातार लिये जा रहे कर्ज से यह सवाल उठना स्वभाविक है कि कहीं सरकार विकास के नाम पर अपने ही राजनीतिक दल के ऐजैंड़ा को पूरा करने के लिये प्रदेश पर यह कर्ज का भार तो नहीं बढ़ा रही है। यह आशंका इसलिये उभरती है कि जब इस कर्ज की स्थिति को लेकर चिन्ता जताते हुए एक जनहित याचिका प्रदेश उच्च न्यायालय में आयी तब इस याचिका पर सरकार का यह कहना कि आम आदमी को यह जानने का हक नही है कि सरकार कहां और कैसे खर्च कर रही है। आज चुनाव के परिदृश्य में यह और भी आवश्यक हो जाता है कि न्यायालय राजनीतिक दलों के वायदों का संज्ञान लेकर उनसे यह पूछे कि इन वायदों को पूरा करने के लिये संसाधन कहां से आयेंगे? क्या इनके लिये कर्ज लिया जायेगा? आज यह समय की मांग है कि वायदों के प्रालोभनों से जनता को बचाया जाये और यह अब न्यायापालिका के लिये ही संभव रह गया है। प्रदेश उच्च न्यायालय में इस संदर्भ जो याचिका आयी है उस पर आगे जून में सुनवाई होगी। इसलिये यह उम्मीद की जा रही है कि उच्च न्यायालय जनहित में प्रदेश की इस आर्थिक स्थिति का समुचित संज्ञान लेते हुए प्रदेश को कर्ज के चक्रव्यूह में फंसने से बचाने के लिये सरकार को कुछ ठोस निर्देश देगा।