Friday, 19 September 2025
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क्या हिमाचल में कांग्रेस है

शिमला/शैल। हिमाचल प्रदेश कांग्रेस 2017 का विधानसभा चुनाव हारने के बाद अब तक संभल नही पा रही है। यह धारणा बनती जा रही है प्रदेश की राजनीति पर नजर रखने वालों की। क्योंकि 2014 से आयी मोदी सरकार के बाद से प्रदेश कांग्रेस का नेतृत्व अपने को संभाल नही पाया है। 2014 में प्रदेश में वीरभद्र के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी। वीरभद्र उस समय आयकर का मामला झेल रहे थे जो बाद में सीबीआई और ईडी तक पहुंच गया और आज तक लटका हुआ है। भाजपा ने वीरभद्र की इस स्थिति का पूरा-पूरा राजनीतिक लाभ उठाया है। वीरभद्र  की इस स्थिति के कारण ही कांग्रेस प्रदेश में कमजोर हुई क्योंकि सत्ता में बैठकर भी वह भाजपा के प्रति आक्रामक नही हो पाये। वीरभद्र के शासनकाल में प्रेम कुमार धूमल और अनुराग ठाकुर की एचपीसीए के खिलाफ मामले तो बनाये गये परन्तु एक भी मामले में सफलता नही मिली। केन्द्र की मोदी सरकार की ऐजैन्सीयों ने वीरभद्र के लिये यह हालात पैदा कर दिये थे कि सत्ता में बने रहना उनकी राजनीतिक आवश्यकता बन गयी थी। लेकिन इसमें वह पार्टी को आगे बढ़ाने और कांग्रेस को अपना राजनीतिक वारिस नही दे पाये। बल्कि संगठन के साथ टकराव में ही चलते रहे। टकराव की यह स्थिति यहां तक पहुंच गयी कि पार्टी अध्यक्ष सुक्खु को ही हटवाने में उनका पूरा ध्यान केन्द्रित होकर रह गया। जबकि कांग्रेस का 2017 के चुनावों में सबसे अच्छा प्रदर्शन सुक्खु के हमीरपुर जिले में ही रहा जहां पांच में से तीन सीटें कांग्रेस ने जीत ली।
वीरभद्र सुक्खु का यह टकराव चुनावों के बाद भी बरकरार रहा और लोकसभा चुनावों से पहले सुक्खु को हटाकर पार्टी की कमान कुलदीप राठौर को थमा दी गयी। लेकिन लोकसभा चुनावों में भी जिस तरह की ब्यानबाजी वीरभद्र की रही है उससे स्पष्ट था कि कांग्रेस बुरी तरह से हारेगी और हुआ भी वही।  लोकसभा चुनावों के बाद राठौर पार्टी को संभाल पाते उसमें कुछ नये लोगों को ला पाते तो इससे पहले ही प्रदेश ईकाई को भंग कर दिया गया। प्रदेश ईकाई को भंग  करते हुए अध्यक्ष को तो बनाये रखा लेकिन शेष कार्यकारिणी को ब्लाकस्तर तक भंग कर दिया गया।  राजनीतिक विश्लेषक जानते हैं कि पार्टीयों में इस तरह के फैसले एक विशेष फीडबैक की पृष्ठभूमि में लिये जाते हैं। राठौर को नियुक्त करते समय जिन नेताओं की अनुशंसा पर अमल किया गया था अब प्रदेश ईकाई को भंग करते हुए भी उन्ही लोगों की सहमति के बाद ऐसा किया गया है। क्योंकि राठौर के पदभार संभालने के बाद पार्टी में पदाधिकारी नियुक्त किये गये थे जो निश्चित रूप से अधिकांश में उन्ही की पसन्द थे। लोकसभा चुनाव हारने के बाद जिस तरह से कुछ पदाधिकारियों की कार्य प्रणाली और हैलीकाप्टर के दुरूपयोग पर सवाल उठे हैं उसी सब के परिणामस्वरूप प्रदेश ईकाई को भंग किया गया है।
इस समय देश की राजनीति जिस मोड़ पर पहुंची हुई है उसमें आने वाले समय में उग्र आक्रामकता आने के साफ संकेत उभर रहे हैं। यह आक्रामकता 2014 की तरह भ्रष्टाचार और आर्थिक मुद्दों पर रहेगी यह स्पष्ट है। इस परिदृश्य में प्रदेशों से लेकर केन्द्र तक कांग्रेस की भूमिका महत्वपूर्ण रहेगी क्योंकि भाजपा के मुकाबले में वही एक राष्ट्रीय पार्टी रह जाती है जो देश के हर गांव में सुनने, देखने को मिल जायेगी। इसी परिप्रेक्ष में हर प्रदेश में कांग्रेस को आक्रामकता की भूमिका में आना होगा। इस संद्धर्भ में जब प्रदेश कांग्रेस के पुनर्गठन की बात आती है तो निश्चित रूप से गठन के समय यह ध्यान रखना होगा कि जिन लोगों को जिम्मेदारीयां दी जायें उनके अपने खिलाफ ऐसा कुछ न हो जिस पर उन्हे ही घेर लिया जाये।  इस गणित में राठौर स्वयं उसी श्रेणी में आते हैं जिनकी अपनी स्लेट साफ है। लेकिन जो लोग भाजपा के आरोप पत्रों में दर्ज हैं यदि ऐसे लोगों के हाथों में कमान दे दी जाती है तो पार्टी को अगले चुनावों में सफल बनवा पाना आसान नही होगा। इस समय नये गठन का फैसला जिस तरह से लंबित होता जा रहा है उससे यह संकेत उभर रहे हैं कि पार्टी के वरिष्ठ लोगों ने अभी तक पिछली हार से कोई सबक नही लिया है।

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