चारों सीटें हारने से शैल के आकलन पर लगी जनता की मोहर
शिमला/शैल। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने उपचुनाव में मिली हार के लिये महंगाई को जिम्मेदार ठहरा कर गेंद केंद्र के पाले में डाल दी है। जयराम के ब्यान के बाद केंद्र के निर्देशों पर भाजपा शासित राज्यों में राज्य सरकारों द्वारा पेट्रोल-डीजल पर लगाये अपने करों में कटौती करके उपभोक्तओं को कुछ राहत भी प्रदान की है। इससे यह प्रमाणित हो जाता है की जनता में पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ने से भारी आक्रोश है। यह आक्रोश इस हार के रूप में सामने आया और इसके परिणाम स्वरूप कीमतों में कमी आ गयी। बल्कि अब जनता में यह चर्चा चल पड़ी है कि यदि इतनी सी हार से कीमतों में इतनी कटौती हो सकती है तो इसमें और कमी का प्रयोग किया जाना चाहिये। यह सही है कि जयराम के ब्यान के बाद ही यह सब कुछ घटा है। लेकिन क्या जयराम इसी से अपनी जिम्मेदारी से भाग सकते हैं? क्या राज्य सरकारों को उपचुनाव से पहले यह समझ ही नही आया कि महंगाई बर्दाश्त से बाहर हो रही है? उप चुनाव की घोषणा के साथ ही खाद्य तेलों की कीमतें बढ़ाकर क्या जयराम सरकार ने जनता के विवेक को चुनौती नहीं दी? प्रदेश की जनता ने चार नगर निगमों में से तीन में भाजपा को हराकर सुधरने की चुनौती दी थी और सरकार ने इस चुनौती का जवाब धर्मशाला नगर निगम में तोड़फोड़ करके दिया। तोड़-फोड़ की राजनीति को सफलता मान लिया गया। लेकिन जमीन पर काम नही कर पायी। हर काम केवल घोषणा तक सीमित होकर रह गया। जैसा कि केंद्र द्वारा घोषित 69 फोरलेन सड़कों की हकीकत आज भी सै(ांतिक संस्कृति से आगे नही सरक पायी है। युवाओं के लिये जब भी किसी विभाग में कोई नौकरियों की घोषणाएं की गई और प्रक्रिया शुरू की गयी तो ऐसी घोषणाएं भी एक ही बारी में अमली शक्ल नही ले पायी है। अधिकांश ऐसी घोषणाओं में कभी अदालत तो कभी किसी और कारण से व्यवधान आते ही रहे हैं। केंद्र की तर्ज पर राज्य सरकार भी घोषणाओं की सरकार बनकर रह गयी है। इन्हीं घोषणाओं के सिर पर सर्वश्रेष्ठता के कई पदक भी हासिल कर लिये हैं। इन्हीं कोरी घोषणाओं का परिणाम है कि आज 20 विधानसभा क्षेत्रों में मतदान हुआ और हर एक में नोटा का प्रयोग हुआ। उपचुनावों में नोटा का प्रयोग होना सीधे सरकार से अप्रसन्नता का प्रमाण होता है। आने वाले विधानसभा चुनाव में यदि 68 विधानसभा क्षेत्रों में ही नोटा का प्रयोग हुआ तो परिणाम क्या हो सकते हैं इसका अंदाजा लगाना कठिन नहीं होगा।
2014 की लोकसभा 2017 की विधानसभा और 2019 के लोकसभा के चुनाव सभी केंद्र की सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़े और जीते गये हैं। इन सभी चुनाव में वीरभद्र और उनके परिजनों के खिलाफ बने आयकर ईडी और सीबीआई के मामलों को खूब उछाला गया। इस बार यह पहला उपचुनाव है जो राज्य सरकार के कामकाज और मुख्यमंत्री के चेहरे पर लड़ा गया। इस उपचुनाव में कांग्रेस के किसी नेता के खिलाफ कोई मामला मुद्दा नहीं बन पाया। बल्कि भाजपा के हर छोटे-बड़े नेता ने कांग्रेस को नेता वहीन संगठन करार दिया। कोविड में कांग्रेस द्वारा बारह करोड़ के खरीद बिल अपनी हाईकमान को भेजने के मामले को मुख्यमंत्री ने इन चुनावों में भी उछालने का प्रयास किया और जनता ने इसे हवा-हवाई मानकर नजरअंदाज कर दिया। ऐसे में यदि भाजपा की भाषा में नेता वहीन कांग्रेस ने जयराम सरकार को चार-शून्य पर उपचुनावों में ही पहुंचा दिया तो आम चुनाव में क्या 68-शून्य हो जाना किसी को हैरान कर पायेगा। इन उपचुनावों की पूरी जिम्मेदारी मुख्यमंत्रा और उनकी टीम पर थी। इस उपचुनाव में महंगाई और बेरोजगारी ही केंद्रीय मुद्दे रहे हैं। जो सरकार मंत्रिमंडल की हर बैठक में नौकरियों का पिटारा खोलती रही और मीडिया इसको बिना कोई सवाल पूछे प्रचारित करता रहा है उसका सच भी इन परिणामों से सामने आ जाता है। यह परिणाम मुख्यमंत्री और उनकी टीम के अतिरिक्त भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा पर भी सवाल खड़े करते हैं क्योंकि वह हिमाचल से ताल्लुक रखते हैं और दो बार प्रदेश में मंत्री भी रहे हैं।
इससे हटकर यदि शुद्ध व्यवहारिक राजनीति के आईने से आकलन करें तो पहला सवाल ये उठता है कि इस उपचुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार और प्रेम कुमार धूमल दोनों स्टार प्रचारकों की सूची में थे। लेकिन प्रेम कुमार धूमल एक दिन भी प्रचार पर नहीं निकले। शांता कुमार ने मंडी और अपने गृह जिला कांगड़ा की फतेहपुर सीट पर प्रचार किया। परिणाम दोनों जगह हार रहा। जनता ने शांता कुमार पर भी भरोसा नहीं किया। जनता ने शांता पर क्यों भरोसा नहीं किया और धूमल क्यों प्रचार पर नहीं निकले? इस पर जब नजर दौड़ायें तो सबसे पहले शांता की आत्मकथा सामने आती है। शांता ने भ्रष्टाचार को सरंक्षण देने के जो आरोप अपनी ही सरकार पर लगाये हैं क्या उनके बाद भी कोई आदमी भाजपा पर विश्वास कर पायेगा इन्हीं शांता कुमार ने इन उप चुनावों की पूर्व संध्या पर जब मानव भारती विश्वविद्यालय का फर्जी डिग्री कांड उठाया और आरोप लगाया कि डिग्रियां बिकती रही और सरकार सोयी रही। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर और डीजीपी संजय कुंडू ने इस बारे में बात करके यहां तक कह दिया कि जिनको जेल में होना चाहिये वह खुले घूम रहे हैं। क्या यह इशारा धूमल की ओर नहीं था। इस मामले में जब शैल ने दस्तावेज जनता के सामने रखते हुए यह पूछा कि जयराम सरकार ने इस मामले में एफ आई आर दर्ज करने में 2 साल की देरी क्यों कर दी। इस सवाल से सारा परिदृश्य बदल गया और सभी शांत हो गये। ऐसे में यदि धूमल प्रचार पर निकलते तो क्या इस हार को उनके सिर लगाया जाता?
इसी तरह इस उपचुनाव में उछले परिवारवाद के मुद्दे पर भी भाजपा अपने ही जाल में उलझ गयी। मण्डी और जुब्बल कोटखाई में परिवारवाद की परिभाषा बदल गयी। यही नहीं चुनाव प्रचार के दौरान जिस तरह का ब्यान सुरेश भारद्वाज और प्रदेश प्रभारी अविनाश खन्ना का सामने आया उसे सीधे इन नेताओं की नीयत ही सवालों में आ गयी। इन उपचुनावों में वह मामले तो उछले ही नहीं जो इनके ही लोगों द्वारा करवाई गई एफ.आई.आर. से उठे हैं। यदि कल को उन मामलों को लेकर कोई उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा देता है तो उसके परिणाम कितने भयानक होंगे उसका अंदाजा लगाना आसान नहीं होगा। क्योंकि उससे 68-शून्य होना कोई हैरानी नहीं होगी। आज उपचुनावों में मिली हार आने वाले समय में पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर भी घातक प्रमाणित होगी यह तह है। इस परिदृश्य में यह सवाल महत्वपूर्ण हो गया है कि प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन होता है या नहीं। कांग्रेस के लिए जयराम सबसे आसान टारगेट होंगे। क्योंकि जिस तरह के सलाहकारों और चाटुकारों से मुख्यमंत्री घिर गये है उनसे बाहर निकलना शायद अब संभव नहीं रह गया है। जितने मुद्दे जयराम ने अपने लिये खड़े कर लिये हैं वह स्वाभाविक रूप से आने वाले दिनों में एक-एक करके जनता के सामने आयेंगे। अब शायद अधिकारी भी मुख्यमंत्री या उनकी मित्र मंडली के आगे मूकबघिर बनकर डांस करने से परहेज करेंगे। क्योंकि यदि मुख्यमंत्री परिणामों के तुरंत बाद हार की नैतिक जिम्मेदारी लेकर पद त्यागने की पेशकश कर देते तो शायद उनके राजनीतिक कद में सुधार हो जाता। लेकिन सलाहकारों ने महंगाई पर ब्यान दिलाकर स्थिति को और बिगाड़ दिया है।