Friday, 19 September 2025
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सिरमौर कार्यकर्ताओं के पत्र से कांग्रेस की एकजुटता पर उठे सवाल

शिमला/शैल। प्रदेश विधानसभा के चुनाव सितम्बर-अक्तूबर में होने की संभावनाएं बढ़ती जा रही है। वैसे तो हिमाचल में हर पांच वर्ष बाद सत्ता बदलती आयी है। पूर्व मुख्यमंत्री स्व. वीरभद्र सिंह से लेकर शान्ता, धूमल तक कोई भी सत्ता में वापसी नहीं कर पाया है। बल्कि शान्ता और धूमल तो विधानसभा चुनाव तक भी हार चुके हैं। इन दोनों का शासन तो जयराम के शासन से हजार दर्जे बेहतर रहा है। इस नाते जयराम और उनकी सरकार का हारना तय माना जा रहा है। लेकिन इस बार प्रदेश के राजनीतिक वातावरण में वीरभद्र सिंह की मृत्यु और आप के चुनाव लड़ने के ऐलान से भारी बदलाव आया है। पंजाब में आप की अप्रत्याशित जीत से हिमाचल की राजनीति भी प्रभावित हुई है। प्रदेश में दो बार केजरीवाल भगवंत मान के साथ और मनीष सिसोदिया अकेले यहां आ चुके हैं। इन यात्राओं से आप के नेतृत्व ने शिक्षा को एक प्रमुख मुद्दा बनाये जाने का सफल प्रयास भी कर दिया है। इस प्रयास से आप आज हिमाचल में 2.5% से 3% तक वोट ले जाने तक पहुंच चुकी है। इस प्रतिशत से यह माना जा रहा है कि आप अपने तौर पर शायद कोई सीट न जीत पाये लेकिन इससे कांग्रेस का नुकसान अवश्य कर देगी। आप को भाजपा का नुकसान करने और स्वयं सीट जीतने के लिये कम से कम 10% वोट तक पहुंचना होगा। भाजपा का प्रयास यही रहेगा कि आप 2.5% से 3% तक ही रहें। आप के प्रभावी सत्येंद्र जैन की गिरफ्तारी इस रणनीति का हिस्सा मानी जा रही है और ऐसा लगता है कि प्रदेश के चुनाव तक जैन को जेल से बाहर भी नहीं आने दिया जायेगा। आप की नयी कार्यकारिणी के गठन और हमीरपुर में केजरीवाल के शिक्षा संवाद के बाद भी सरकार की उस पर कोई प्रतिक्रिया न आना इसी दिशा के संकेत माने जा रहे हैं। इस वस्तुस्थिति में प्रदेश में कांग्रेस की भूमिका और महत्वपूर्ण हो जाती है। लेकिन जिस तरह से कांग्रेस प्रदेश में चल रही है उससे यह नहीं लगता कि वह इस बारे में सचेत भी है। क्योंकि प्रतिभा सिंह की मंडी में जीत का एक बड़ा कारण स्व. वीरभद्र सिंह के प्रति उपजी सहानुभूति भी रही है। इसी सहानुभूति के चलते प्रतिभा सिंह प्रदेश अध्यक्ष बनी है। लेकिन उनकी अध्यक्षता पर उसी समय प्रश्नचिन्ह भी लग गये हैं जब उनके साथ चार कार्यकारी अध्यक्ष भी बना दिये गये। जबकि कार्यकारी अध्यक्ष बनाने का प्रयोग अन्य राज्यों में सफल नहीं रहा है। कार्यकारी अध्यक्षों के साथ ही अन्य बड़े नेताओं मुकेश, सुक्खुू आशा, आनन्द शर्मा, कॉल सिंह आदि के लिये भी पदों का प्रबंध किया गया। इसमें मुकेश ही अकेले ऐसे नेता है जो पहले से ही नेता प्रतिपक्ष थे। जब नेताओं को इस तरह से समायोजित किया गया तब कार्यकर्ताओं और क्षेत्रों का भी ख्याल रखना पड़ा और लंबी चौड़ी कार्यकारिणी बनानी पड़ गयी। इसमें जिला शिमला से सबसे ज्यादा लोगों को कार्यकारिणी में जगह देनी पड़ गयी। यह जगह देने से अन्य जिलों के साथ संतुलन गड़बड़ा गया है। दूसरी ओर यदि इस कार्यकारिणी के बाद पार्टी की कारगुजारी पर नजर डाली जाये तो अभी तक पुलिस पेपर लीक के मामले से हटकर कोई और बड़ा मुद्दा पार्टी जनता के सामने नहीं रख पायी है। इसमें भी दावे के बावजूद ऑडियो टेप जारी नहीं किया गया है। पेपर लीक मामला सीबीआई तक क्यों नहीं पहुंचा है इसको लेकर सुक्खू ने जब राज्यपाल को ज्ञापन सौंपा तब उनके साथ सारे बड़े नेता क्यों नहीं थे। इसका कोई जवाब नहीं आया है। अब प्रतिभा सिंह के दौरों में भी बड़े नेताओं का एक साथ न रहना सवालों में है। प्रतिभा सिंह की सभाओं में कम हाजिरी भी अब चर्चा में आने लग गयी है। सिरमौर में तो कुंवर अजय बहादुर सिंह के खिलाफ जिला नेताओं का पत्र तक आ गया है। हर्षवर्धन चौहान कैसे और क्यों मंच की बजाय कार्यकर्ताओं के बीच बैठे यह एक अलग सवाल बन गया है। कुल मिलाकर सभी बड़े नेता अपनी-अपनी सीट निकालने तक सीमित होते जा रहे हैं। अपने-अपने जिले की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं हो रहे हैं। पूर्व मंत्री मनकोटिया ने तो खुलकर वंशवाद हावी होने का आरोप तक लगा दिया है। यहां तक कहा जा रहा है कि 42 सीटों पर ऐसे उम्मीदवार मैदान में होंगे जिनके परिवारों से कोई न कोई विधायक सांसद या मंत्री रहा है। यह सब इसलिये हो रहा है क्योंकि नेतृत्व अभी तक सरकार के खिलाफ ऐसा कोई मुद्दा नहीं ला पाया है। जिस पर सरकार घिर जाती और जवाब देने पर आना पड़ता तथा कार्यकर्ता भी उस पर एकजुट होकर आक्रामक हो जाते।

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