क्या कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में शीत युद्ध शुरू है?
शिमला/शैल। प्रदेश कांग्रेस का आरोप पत्र जितना लेट होता जा रहा है उस अनुपात में पार्टी के बड़े नेताओं में वैचारिक विरोधाभास मुखर होता जा रहा है। सरकार को मुद्दों पर घेरने के बजाय कुछ नेता अपने अपने तौर पर ही एक तरह से चुनावी वायदे करने पर आ गये हैं। यह स्वभाविक हैं कि राजनीतिक दल चुनाव में उतरने के लिये जनता से वायदे करते हैं जैसे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किये थे जिनको बाद में जुमलो की संज्ञा दी गई थी। आज हिमाचल लगातार कर्ज के चक्रव्यू में घंसता जा रहा है। जयराम इस स्थिति के लिये कांग्रेस को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। लेकिन कांग्रेस की ओर से इसका कोई प्रमाणिक जवाब नहीं आ रहा है। बल्कि कांग्रेस नेता स्वयं ऐसी घोषणा करते जा रहे हैं जिन्हें पूरा करने के लिए या तो कर्ज लेना पड़ेगा या फिर जनता पर करों का बोझ लादना पड़ेगा। जबकि यह दोनों स्थितियां प्रदेश की आर्थिक सेहत के लिए घातक होंगी।
अभी यह वायदा किया गया है कि हर महिला को 1500 रूपये प्रतिमाह दिये जाएंगे। युवाओं के लिये 680 करोड की युवा स्टार्टअप योजना शुरू की जायेगी। शिक्षा और बागवानी में दो लाख नौकरियां दी जायेंगी। बागवानी कमीशन का गठन किया जायेगा और पैकेजिंग मैटेरियल पर जीएसटी समाप्त कर दिया जायेगा। अभी तक शायद चुनाव घोषणापत्र तैयार करने वाली कमेटी की कोई बैठक नहीं हुई है। यह भी स्पष्ट नहीं है कि इन घोषित वायदों पर कितने लोगों की सहमति बन पायी है। इन वायदों को पूरा करने के लिए आर्थिक संसाधन क्या होंगे और कहां से आयेंगे इस बारे में कुछ नहीं कहा गया है। यह जो वायदे किये जा रहे हैं यह सब एक तरह से मुफ्त खोरी की श्रेणी में आते हैं। सर्वाेच्च न्यायालय तक ने इन मुफ्तखोरी योजनाओं का कड़ा संज्ञान लिया है और यह माना जा रहा है कि इन चुनावों से पहले इस संद्धर्भ में शीर्ष अदालत का कोई चाबुक चल सकता है ऐसे में इस तरह से घोषित की जा रही योजनाओं की व्यवहारिकता पर जब सवाल उठेंगे तो उनका जवाब देना कठिन हो जायेगा।
ऐसे में यह सवाल उठ रहा है कि प्रदेश कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व ऐसे कर क्यों रहा है? क्या सही में कांग्रेस के पास इस समय कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो आर्थिकी के इन पक्षों को समझता हो? क्या पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में अभी से मुख्यमंत्री पद के लिये अंदर खाते टकराव के हालात पैदा होते जा रहे हैं? इन सारे सवालों पर विचार करने के लियेे यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि प्रदेश में सत्ता परिवर्तन का सबसे बड़ा आधार सरकार पर लगने वाले भ्रष्टाचार के आरोप ही रहते आये हैं। इसके बाद कर्मचारी नेतृत्व भी दावा करता रहा है कि वह सरकारों के बनाने में बड़ी भूमिका अदा करता है। लेकिन इसका एक सच यह भी है कि आज तक कर्मचारियों में से केवल दो नेता ही विधानसभा पहुंच पाये हैं। इसके बाद जातीय समीकरण प्रदेश की राजनीति को प्रभावित करते रहे हैं और संयोगवश डॉक्टर परमार से लेकर जयराम ठाकुर तक एक शांता कुमार को छोड़कर मुख्यमंत्री राजपूत वर्ग से ही बनता रहा है। भाजपा में तो संगठन का नेतृत्व भी अधिकांश में ब्राह्मण और राजपूतों में से ही रहा है। सुरेश कश्यप पहली बार अपवाद हैं। कांग्रेस में सभी वर्गों से संगठन का नेतृत्व रहा है। इस परिपेक्ष में आज कांग्रेस के अंदर सबसे वरिष्ठ ठाकुर कौल सिंह हैं उनके बाद प्रतिभा सिंह, आशा कुमारी, मुकेश अग्निहोत्री और सुखविंदर सिंह सुक्खू सब की राजनीतिक वरियता लगभग बराबर है। ऐसे में अभी कांग्रेस नेतृत्व को एकजुटता का परिचय देते हुये अपने राजनीतिक विरोधाभासों को विराम देकर चुनावी रण में उतरना होगा।