Thursday, 18 September 2025
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300 यूनिट बिजली मुफ्त देने की जगह बिजली सब्सिडी बन्द करने पर पहुंची सरकार

  • आरबीआई के मुताबिक प्रदेश का कर्ज़ भार जीडीपी के 42.5% तक पहुंचा
  • पंजाब के बाद कर्ज भार में दूसरे स्थान पर पहुंचा हिमाचल
  • सरकार के फैसलों से हाईकमान भी आई कठघरे में
शिमला/शैल। मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने प्रदेश सरकार द्वारा बिजली पर दी जा रही सब्सिडी छोड़ दी है। सब्सिडी छोड़ने की घोषणा उन्होंने वाकायदा एक पत्रकार वार्ता बुलाकर उसमें की है। उन्होंने कहा है कि उनके नाम पर पांच बिजली के मीटर हैं और उन पांचों मीटरों पर मिल रही सब्सिडी उन्होंने छोड़ दी है। पत्रकार वार्ता में ही सब्सिडी छोड़ने का फॉर्म भरकर बिजली बोर्ड के अध्यक्ष को सौंप दिया। उन्होंने दूसरे संपन्न लोगों से भी यह सब्सिडी छोड़ने का आग्रह किया। उनके आग्रह पर लोक निर्माण मंत्री विक्रमादित्य ने भी तुरन्त यह सब्सिडी छोड़ने का फॉर्म भर दिया। मुख्यमंत्री और विक्रमादित्य सिंह दोनों ही निश्चित रूप से संपन्न व्यक्तियों की श्रेणी में आते हैं। इसलिए उन्हें यह सब्सिडी छोड़नी ही चाहिए थी। उन्हीं की तरह दूसरे संपन्न राजनेताओं को भी ऐसा ही अनुसरण करना चाहिए। सरकार ने सरकारी कर्मचारियों/अधिकारियों के लिए इस आशय का शायद आदेश भी जारी कर दिया है। जो शायद सेवानिवृत्त लोगों पर भी बराबर लागू होगा। सरकार के इस आदेश से स्पष्ट हो जाता है कि प्रदेश वित्तीय संकट से गुजर रहा है। वित्तीय संसाधन जुटाना के लिये जिस तरह के फैसले इस सरकार ने लिये हैं जिन सेवाओं और वस्तुओं पर प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष कर भार बढ़ाया है उससे जो सवाल खड़े हुये उसे न केवल प्रदेश कांग्रेस बल्कि कांग्रेस हाईकमान तक सवालों के घेरे में आ जाता है।
सुक्खू सरकार को सत्ता में आये दो वर्ष हो गये हैं। मंत्रिमण्डल का कोई भी सदस्य ऐसा नहीं है जो पहली बार ही विधायक बना हो। हर सरकार हर वर्ष बजट विधानसभा में रखती है और पास करवाती आयी है। हर बजट कर मुक्त बजट प्रचारित होता रहा है। हर बजट में प्रदेश की वित्तीय स्थिति का पूरा विवरण माननीय के सामने आता है। हर वर्ष कैग रिपोर्ट और आर्थिक सर्वेक्षण विधानसभा के पटल पर रखे जाते रहे हैं और आगे भी रहेंगे ही। इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि किसी भी राजनीतिक दल को चुनावों में उतरते वक्त अपना घोषणा पत्र जारी करते हुये प्रदेश की वित्तीय स्थिति की जानकारी न रही हो। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक हो जाता है कि जब दो वर्ष पहले कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव के लिए प्रदेश की जनता को दस गारंटीयां दी थी तब उसे प्रदेश की वित्तीय स्थिति की पूरी जानकारी रही ही होगी। लेकिन सरकार बनने के बाद जिस तरह का आचरण गारंटीयों को लेकर सरकार का रहा है और जिस तरह से शौचालय शुल्क लगाने तक स्थिति आ पहुंची है उससे कुछ अलग ही तस्वीर उभरती है। क्योंकि हर जिस तरह के ‘किन्तु -परन्तु’ की शर्तें लगाई गयी हैं उससे हर गारंटी की लाभार्थियों के आंकड़ों में जो व्यवहारिक कमी आयी है उसने सरकार की नीयत और नीति पर गंभीर सवाल खड़े कर दिये हैं। सरकार के फैसले राष्ट्रीय स्तर पर निन्दा और चर्चा का विषय बने हैं। प्रधानमंत्री तक ने हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में हिमाचल के फैसलों पर कांग्रेस की समझ पर कड़े हमले किये हैं। बल्कि हिमाचल के फैसले ही प्रधानमंत्री की आक्रमकता का आधार बने हैं।
जिस तरह के भ्रष्टाचार के आरोप सरकार पर लगने शुरू हुये हैं उससे कांग्रेस की कार्यशैली और खर्चों पर न चाहे ही सरकार के गठन से लेकर अब तक नजर जानी शुरू हो गयी है। जिस सरकार को हर माह कर्ज लेना पड़ रहा हो वहां मुख्यमंत्री कार्यालय के प्रस्तावित कायाकल्प पर 19 करोड़ के खर्च का अनुमान स्वभाविक रूप से विपक्ष के निशाने पर आयेगा ही। क्योंकि रिजर्व बैंक की 2024 में आयी रिपोर्ट के मुताबिक कर्ज भार में हिमाचल राष्ट्रीय स्तर पर पंजाब के बाद दूसरे स्थान पर पहुंच चुका है। पंजाब का कर्ज जीडीपी के अनुपात में 44.1% है और हिमाचल 42.5% है। जहां कर्ज जीडीपी का 42.5 प्रतिशत पहुंच जाये वहां पर विकास सिर्फ राजनेताओं के भाषणों तक ही सीमित रहता है जमीन पर नहीं पहुंचता है। क्योंकि सारे संसाधन इस कर्ज का ब्याज चुकाने में ही लग जाते हैं और जब सरकार अपने खर्चों पर लगाम लगाने में सक्षम न रह जाये तो स्थिति और भी भयानक हो जाती है। जो पार्टी दो वर्ष पहले 300 यूनिट बिजली मुफ्त देने का वायदा करके आयी हो उसे आज सब्सिडी छोड़ने के आदेश और आग्रह करने पड़ जायें उससे क्या उम्मीद की जा सकती है। बल्कि सरकार के फैसले हाईकमान के लिये विश्वसनीयता का संकट खड़ा करते जा रहे हैं।

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