शिमला/शैल। मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष सुक्खविन्दर सिंह सुक्खु पर हर संभव मंच से लगातार निशाना साधते आ रहें हैं। जो स्थिति सरकार बनने के समय विभिन्न निगमो/बार्डो में हुई ताजपोशीयों को लेकर हुई थी ठीक वैसा ही अब हो रही है। संगठन द्वारा की जा रही हर नियुक्ति पर वीरभद्र की तीखी प्रतिक्रियाएं आती हैं। मुख्यमन्त्री और संगठन के मुखिया के बीच इस तरह की सार्वजनिक निशाने बाजी से सरकार व संगठन की कार्यप्रणाली पर नकारात्मक प्रभाव पडना स्वभाविक है। निष्पक्ष विश्लेषकों की नजर में इस समय सरकार और संगठन में एक बराबर अराजकता का वतातवरण बना हुआ है। सरकार में जो करीब एक दर्जन लोग सीधे लाभार्थी हैं उनको छोड़कर प्राय हर आदमी सरकार से हताश है संगठन तो आम आदमी के लिये मायने ही नहीं रखता है।
इस परिदृश्य में इन दिनों यह सवाल आम चर्चा में है कि वीरभद्र ऐसा कर क्यों रहे हैं। कुछ लोगों का मानना है कि वींरभद्र को जो राय उनके गिर्द बैठे अधिकारियों से मिल रही है वह उसके अनुसार कार्य कर रहे हैं । कुछ लोगों का मानना है कि वीरभद्र पर उनके नाम से बनाये गये एनजीओ के दवाब के कारण ऐसा हो रहा है। चुनाव इसी वर्ष के अन्त तक होने हैं यदि स्थितियां सामान्य रही तो। अन्यथा कुछ भी हो सकता है। ऐसे जो लोग एनजीओ के नाम पर वीरभद्र से जुड़े है उनकी भी इच्छा चुनाव लड़ने की होना स्वभाविक है। लेकिन एनजीओ के सक्रिय कार्यकर्ता होने से ही कांग्रेस के टिकट के लिये उनका दावा पुख्ता नही हो जाता। यदि यह लोग इस बार किसी भी कारण से चुनाव नहीं लड़ पाते हैं तो उनकी राजनीतिक महत्वकांक्षा का अन्त हो जायेगा। बल्कि सूत्रों की माने तो एनजीओ से जुडे़ एक दर्जन नेता तो हर हालत में यह चुनाव लडना चाहते हैं । उनकी यह इच्छा तभी पूरी होती है यदि कांग्रेस उन्हें टिकट दे और यह तभी संभव है यदि पार्टी अध्यक्ष वीरभद्र स्वयं हो जायें या उनका कोई विश्वस्त इस पद पर कब्जा कर पाये। यदि ऐसा नही हो पाता है तो यह एनजीओ ही वीरभद्र के लिये एक बडी समस्या बन जायेगा। क्योंकि एनजीओ के साथ जुडे लोगों को वीरभद्र से ज्यादा विक्रमादित्य का सहारा है। विक्रमादित्य भी चुनाव टिकटों के आंवटन को लेकर समय-समय पर जीतने की संभावना’’ की जो शर्त लगा देते हैं उसके पीछे यही धारणा मानी जा रही है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि यहखेल कब तक चलता रहेगा।
इस समय संगठन चुनावों की प्रक्रिया से गुजर रहा है। संगठन को यह अपने चुनाव चुनाव आयोग के फरमान के कारण करवाने पड़ रहे हैं। यदि राष्ट्रीय स्तर पर यह चुनाव तय समय सीमा के भीतर पूरे नहीं होते हैं तो पार्टी की मान्यता पर संकट आ जायेगा। ऐसे में इस समय वीरभद्र के लिये राजनीतिक विवशता बन गयी है कि या तो वह चुनावों के माध्यम से संगठन पर कब्जा करें या फिर चुनाव टालकर सुक्खु को हटवाने में सफल हो जायें। यदि किन्ही कारणों से यह सब संभव नही हो सका तो वीरभद्र का एनजीओ ही प्रदेश में पार्टी के विघटन का कारण बन जायेगा। पार्टी के सारे वरिष्ठ नेता वीरभद्र की इस नीयत और नीति पर नजर रखे हुए हैं। लेकिन यह भी सब जानते हैं कि चुनावों को वक्त पर पार्टी पर कब्जा करने के लिये वीरभद्र किसी भी हद तक जा सकते हैं जैसा कि उन्होने 2012 के चुनावों से पहले किया था। सुक्ख पर साधे जा रहे निशानों को इसी परिप्रेक्ष में देखा जा रहा है। वैसे इस समय सुक्खु वीरभद्र पर भरी पड़ते जा रहे हैं । माना जा रहा है कि हाईकमान भी वीरभद्र की नीयत और नीति से परिचित हो चुकी है। संभवतः इसी कारण से अंबिका सोनी अब हिमाचल का प्रभार छोड़ने का प्रयास कर रही है।