शिमला/शैल। वीरभद्र को सातवीं बार मुख्यमन्त्री बनाने और कांग्रेस सरकार के पुनः सत्ता में आने के दावों पर नगर निगम शिमला की हार मुख्यमन्त्री और उनके सलाहकारों की टीम के लिये एक बहुत बड़ा झटका माना जा रहा है। इस हार का सबसे दुःखद निगम क्षेत्र में जुडे थे उनमें से केवल तीन में ही कांग्रेस को जीत हासिल हो पायी है। इन विधानसभा क्षेत्रों में इतनी बड़ी हार वीरभद्र सिंह के लिये व्यक्तिगत स्तर पर एक बड़ा झटका है क्योंकि शिमला ग्रामीण से वह स्वयं विधायक है और अगला चुनाव यहां से उनका बेटा विक्रमादित्य लड़ना चाहता है। विक्रमादित्य की उम्मीदवारी तो एक तरह से घोषित भी की जा चुकी है। शिमला ग्रामीण के साथ ही कुसुम्पटी भी उनका अपना ही क्षेत्र माना जाता है क्योंकि उनकी पत्नी पूर्व सांसद प्रतिभा सिंह यहां से ताल्लुक रखती है। इस चुनाव में संजौली ढली क्षेत्र के भी सारेे वार्डो में काग्रेंस को हार देखनी पड़ी है जबकि इन क्षेत्रों में ऊपरी शिमला के लोगों का बाहुल्य है यहां कांग्रेस का पूरा सफाया हो जाना जिला शिमला को वीरभद्र के लिये एक बड़े संकट का संकेत माना जा रहा है।
नगर निगम शिमला पर 2012 तक कांग्रेस और वीरभद्र का एक छत्र राज रहा है। 2012 में सत्ता सीपीएम के हाथ चली गयी थी। उस समय भी सीपीएम कांग्रेस के एक बड़े वर्ग के सहयोग से सत्ता में आयी थी। सीपीएम और कांग्रेस के अघोषित गठबन्धन के कारण ही माकपा सत्ता में पूरा कार्यकाल काट गयी। इस कार्यकाल में माकपा शासन पर असफलता के ऐसे कई अवसर आये थे जब माकपा के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाकर उसे सत्ता से हटाया जा सकता था लेकिन ऐसा नही हुआ। इन चुनावों में भी जब कांग्रेस ने अधिकारिक तौर पर अपने उम्मीदवार उतारने से मना कर दिया था तब दबी जुबान से यह चर्चा भी थी कि कांग्रेस के एक धडे़ का माकपा से अघोषित गठबन्धन हो गया है। इसी गठबन्धन के कारण माकपा ने केवल 22 सीटों पर चुनाव लड़ा जबकि उसने हर वार्ड में नये वोटर बनाये थे लेकिन जिन बारह वार्डों में माकपा ने अपने प्रत्याशी नही उतारे थे वहां पर माकपा का वोट कांग्रेस को ट्रांसफर नही हो पाया। इस तरह जहां माकपा को अपनी असफलताओं का नुकसान उठाना पड़ा और वह केवल एक सीट पर सिमट गयी वहीं पर कांग्रेस को भी इससे सीधे हानि हुई। इस चुनाव परिणाम ने यह स्पष्ट कर दिया कि कांग्रेस का अधिकृत उम्मीदवार न उतारने का पहला फैसला एकदम गलत था। उसके बाद नाम वापसी के अन्तिम दिन प्रत्याशीयों की सूची जारी करके कई वार्डो में अपने प्रत्याशीयों को चुनाव से हटाने में सफल नहीं हो सके। इस चुनाव का प्रबन्धन हरीश जनारथा के पास था लेकिन वह अपने संजौली क्षेत्रा में ही बुरी तरह असफल रहे। हर्ष महाजन भी वीरभद्र के बडे़ राजनीतिक सलाहकारों में गिने जाते हैं लेकिन वह भी अपने वार्ड में सफलता नहीं दिला पाये। कांग्रेस अध्यक्ष सुक्खु जो स्वयं कभी इसी नगर निगम के पार्षद रह चुके है वह भी अपने वार्ड में असफल रहे है।
इस तरह जहां इस हार के लिये सुक्खु -वीरभद्र का द्वन्द बहुत हद तक जिम्मेदार है। वहीं पर मुख्यमन्त्री के गिर्द बैठे अधिकारियों का वह वर्ग भी पूरी तरह जिम्मेदार है जो कि वीरभद्र की सरकार चला रहा है। क्योंकि आज प्रशासन हर मोर्चे पर बुरी तरह असफल रहा है। इस कार्यकाल में भष्टाचार के जिन मामलों पर विजिलैन्स पूरी तरह व्यस्त रही है। उनमें एक भी मामले को अन्जाम तक नहींे पहुंचा सकी है। विजिलैन्स प्रशासन अपनी असफलता के लिये आज सीधे मुख्यमन्त्री के अपने कार्यालय को दोषी ठहराता है। विजिलैन्स का आरोप है कि कुछ मामलों की फाईले मुख्यमन्त्री के कार्यालय में सालो तक दबी रही हैं। इस कारण जब सरकार की ओर से कोई स्पष्ट निर्देश नहीं मिले तो फिर यह मामलें अपने आप ही कमजोर पड़ते चले गये। यही कारण है कि विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस ने धूमल शासन के खिलाफ ‘हिमाचल आॅन सेल’ का आरोप लगाकर सरकार की छवि पर भ्रष्टाचार का जो ’टैग’ चिपका दिया था। उस बारे में सत्ता में आकर कुछ किया ही नहीं गया। अपने ही लगाये आरोपों को प्रमाणित न कर पाने से वही टैग आरोप लगाने वालों पर चिपक जाता है। आज वीरभद्र प्रशासन की छवि के साथ अराजकता और भ्रष्टता के जो टैग चिपकते जा रहें है उसके लिये अधिकारियों का यही वर्ग जिम्मेदार है। यदि वीरभद्र समय रहते न संभले तो आने वाले समय में ज्यादा नुकसान होने की संभावना है। अभी भी संभलने का वक्त है क्योंकि इस चुनाव ने यह भी प्रमाणित कर दिया है कि आज की तारीख में मोदी लहर का असर प्रदेश में नही है।