शिमला/शैल। मुख्यमन्त्री वीरभद्र के पुत्र और प्रदेश युवा कांग्रेस के अध्यक्ष विक्रमादित्य ने वीरभद्र की गैर मौजुदगी में पिता के सरकारी आवास ओक ओवर में एक पत्रकार वार्ता को संबोधित करते हुए प्रदेश विधानसभा के आगामी चुनाव वीरभद्र की ही एकछत्र लीडरशिप में करवाये जाने की वकालत की है। विक्रमादित्य ने नगर निगम शिमला के चुनाव हारने के बाद प्रैस वार्ता को संबोधित करते हुए यह स्वीकार किया कि निगम के चुनाव समन्वय की कमी के कारण हारे हैैं। लेकिन इस समन्वय में कमी सुक्खु के संगठन की ओर से रही या वीरभद्र की सरकार की ओर से। इसका खुलासा भी विक्रमादित्य ने नही किया। जबकि इससे पहले वीरभद्र और सुक्खु एक दूसरे पर निगम चुनावों की हार का ठिकरा फोड़ चुके हैं। विक्रमादित्य ने प्रदेश विधानसभा के चुनाव पंजाब माॅडल पर करवाये जाने की वकालत की है। स्मरणीय है कि पंजाब में कैप्टन अमरेन्द्र सिंह को चुनावों से काफी पहले प्रदेश का भावी मुख्यमन्त्री घोषित कर दिया गया था और इसका निश्चित रूप से कांग्रेस को लाभ मिला था। हिमाचल में जब से वीरभद्र सिंह के गिर्द केन्द्र की सीबीआई, ईडी और आयकर ने घेरा डाल रखा है तभी से कांग्रेस के अन्दर नेतृत्व परिवर्तन के स्वर भी मुखर होते रहे हैं। परन्तु हाईकमान ने इस सवाल पर अभी तब अपनी खामोशी नही तोड़ी है। जबकि वीरभद्र और उनके शुभचिन्तक तो उनको सातवीं बार मुख्यमन्त्री बनाने के दावे कर चुके है। विक्रमादित्य एक अरसे से प्रदेश कांग्रेस की बागडोर भी अप्रत्यक्षः सरकार के साथ ही वीरभद्र को सौंपने की वकालत करते आ रहे है। लेकिन विक्रमादित्य के ऐसे प्रयासों और ब्यानों पर संगठन की ओर से कभी कोई प्रतिक्रिया नही आयी है। वीरभद्र और विक्रमादित्य जिस ढंग से सुक्खु की अध्यक्षता पर परोक्ष/अपरोक्ष से हमला बोलते आ रहें हैं उससे यह पूरी तरह स्पष्ट हो चुका है कि पार्टी इस समय सुक्खु और वीरभद्र के खेमों में बुरी तरह बंटी हुई है और इसी बंटवारे के कारण नगर निगम में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा है।
लेकिन नगर निगम शिमला की हार वीरभद्र और उनके बेटे विक्रमादित्य के लिये व्यक्तिगत तौर पर एक बड़ा झटका है, क्योंकि निगम चुनाव के परिणाम आने के बाद विक्रमादित्य ने मीडिया में यह दावा किया था कि भाजपा के कई पार्षद उनके संपर्क में है, जबकि यह दावा इतना खोखला साबित हुआ कि भाजपा के पार्षद तो दूर बल्कि निर्दलीय पार्षदों को भी कांग्रेस संभाल नही सकी। निश्चित है कि विक्रमादित्य ने ऐसा दावा उनके सहयोगीयों/सलाहकारों के फीड वैक के दम पर किया होगा। यह दावा और फीड बैक कितना आधारहीन था इसका अनुमान विक्रमादित्य को अब तक हो गया होगा। विक्रमादित्य शिमला ग्रामीण से अपनी संभावित उम्मीदवारी बहुत पहले ही जता चुके हैं और वीरभद्र भी उनकी इस उम्मीदवारी को अपनी मोहर लगा चुके हैं। ऐसे मे शिमला ग्रामीण से ताल्लुक रखने वाले निगम के चारों वार्डो का हाथ से फिसल जाना एक गंभीर संकेत है। क्योंकि यहां जिन लोगों के सहारे वीरभद्र और विक्रमादित्य चले हुए थे संभवतः उनकी निष्ठाएं कहीं और जुड़ी हुई है, शायद इस सच्चाई को इनके अतिरिक्त बाकी सब जानते हैं। बल्कि इन दिनों तो शिमला ग्रामीण में कांग्रेस के कुछ नेताओं द्वारा खरीदी गयी भू-संपत्तियों की चर्चा के साथ ही इन नेताओं की राजनीतिक मंशा पर भी सवाल उठने शुरू हो गये है। क्योंकि बतौर युवा कांग्रेस अध्यक्ष विक्रमादित्य को मुख्यमन्त्री के सरकारी आवास की बजाये कांग्रेस दफ्तर में पत्रकार वार्ता को संबोधित करना चाहिये था लेकिन जिसने भी ओक ओवर में यह वार्ता का सुझाव दिया है उसकी नीयत का अनुमान लगाया जा सकता है।
इस समय नगर निगम की हार को जिला शिमला के बड़े परिदृश्य में समझा जाना आवश्यक है। शिमला जिला का मुख्यालय होने के साथ ही प्रदेश की राजधानी भी है। इस राजधानी के समानान्तर ही धर्मशाला में दूसरी राजधानी बनाये जाने की अधिसूचना तक जारी हो चुकी है। आज शिमला में प्रदेश के अन्य भागों से लोगों को यहां अपने कामों के लिये आना पड़ता है। कल को शिमला के लोगों को धर्मशाला जाने की नौबत आ जायेगी। वीरभद्र के इस फैसले का यहां के लोगों में इतना विरोध पनपा है कि संगठन बनाकर इसके खिलाफ आन्दोलन छेड़ने की योजना तैयार हो गयी थी। योजना के तहत राजधानी की इस अधिसूचना को प्रदेश उच्च न्यायालय में चुनौती दी जा चुकी है। नगर निगम के चुनावों में सरकार के इस राजधानी के फैसले को लेकर भीतर ही भीतर बड़ा रोष था जो कि परिणामों में सामने आया है। जिन राजनेताओं और अधिकारियों की सलाह पर यह फैसला लिया गया था वह लोग इस चुनाव प्रचार में कहीं नजर तक नही आये। ऐसे और भी कई फैसले हैं जिनके कारण प्रदेश के अलग- अलग हिस्सों में रोष है। ऐसे फैसलों की पृष्ठभूमि मे विक्रमादित्य की 45 विधानसभा क्षेत्रों के लिये प्रस्तावित विकास यात्रा का क्या राजनीतिक प्रभाव रहेगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है।