शिमला/शैल। कांग्रेस में चल रहा सरकार और संगठन का टकराव अब एक ऐसे मोड़ पर पहुंच गया है जहां किसी एक का नुकसान होना तय है। वीरभद्र सिंह ने चुनावों से पूर्व संगठन पर पूर्ण कब्जे के लिये अपना आखिरी दाव चल दिया है। वीरभद्र ने हाईकमान को स्पष्ट संकेत दे दिये हैं कि जिस ढंग से संगठन चल रहा है उसमें वह चुनावों में पार्टी का नेतृत्व नही कर सकते। संगठन और सरकार का यह टकराव तो वीरभद्र सिंह के शपथ लेने के साथ ही शुरू हो गया था। क्योंकि ऐसा पहली बार हुआ था कि नेता के चुनाव के समय विधायक दल आधा-आधा बंट गया था। इसी कारण से विभिन्न निगमो/बोर्डो में हुई ताजपोशीयों को लेकर चला यह टकराव आज इस मुकाम पर पहुंच गया। इस दौरान विद्या स्टोक्स, कौल सिंह
ठाकुर और जीएस बाली जैसे मन्त्रीयों ने कई बार अपने-अपने तरीके से वीरभद्र को चुनौती देने के प्रयास किये। लेकिन कोई भी सफल नही हो सका। आनन्द शर्मा और आशा कुमारी भी इस खेल के परदे के पीछे के खिलाड़ी रहे हैं। राजेश धर्माणी और राकेश कालिया तो अपने पदों से त्यागपत्र देने तक पहुंच गये थे। लेकिन यह सब लोग मिलकर भी हाईकमान को आश्वस्त नही करवा पाये कि प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन की आश्यकता है। न ही यह लोग अपने स्टैण्ड को अन्तिम परिणाम तक ले जा पाये। बल्कि सबकी यही छवि बनती चली गयी कि इनकी नाराजगियां केवल अपने-अपने काम निकलावने के लिये थी।
दूसरी ओर सुक्खु ने भी संगठन में अपनी ईच्छा से पदाधिकारियों की नियुक्तियां करनी शुरू कर दी। वीरभद्र ने भी इन नियुक्तियों के विरोध में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। यहां तक की वीरभद्र के समर्थकों ने उनकेे नाम से एक बिग्रेड़ खड़ा कर दिया। यह बिग्रेड़ एक प्रकार से समानान्तर संगठन बन गया। जब इसका संज्ञान लेकर कुछ शीर्ष लोगों के खिलाफ अनुशासन की कारवाई शुरू हुई तो इसे भंग करके इसे एक एनजीओ के रूप में पंजीकृत करवा दिया गया। यही नही इसके प्रमुख ने सुक्खु के खिलाफ मानहानि का मामला तक दायर कर दिया जो अब तक चल रहा है। संयोगवश इस बिग्रेड से बने एनजीओ और विभिन्न निगमो/बोर्डो में ताजपोशीयां पाने वाले अधिकांश लोगों की वफादारीयां और वीरभद्र के बेटे युवा कांग्रेस के अध्यक्ष विक्रमादित्य समय-समय पर आने वाले विधानसभा चुनावों में टिकट दिये जाने के मानदण्डोें को लेकर ब्यान देते आये हैं। लेकिन जब सरकार और संगठन में यह सब चल रहा था तब उस समय की प्रभारी चुपचाप आंख बन्द करके तमाशा देखती रहीं। शायद उन्होने हाईकमान को इस सबके बारे में कभी कोई जानकारी दी ही नही है। बल्कि इसी दौरान कांग्रेस के कुछ मन्त्रीयों सहित कई नेताओं के नाम इस चर्चा में आ गये कि यह लोग कभी भी भाजपा का दामन थाम सकते हैं। भाजपा भी यह खुला दावा करती रही कि कांग्रेस के कई लोग उसके संपर्क में चल रहे हैं। वीरभद्र के परिवहन मन्त्री जीएस बाली के प्रदेश से लेकर दिल्ली तक भाजपा के कई बड़े नेताओं के साथ बहुत निकट के संबंध हैं और इन्ही संबन्धों ने इन अटकलों को और हवा दी कि भाजपा का दावा सच हो सकता है। इसी पृष्ठभूमि में जब पिछले दिनों शिंदे की मौजूदगी बाली के कांगड़ा में कार्यकर्ता सम्मेलन हुआ तो उसमें जिस तर्ज में बाली और अन्य नेताओं ने मंच से जो खुला प्रहार वीरभद्र के खिलाफ किया उससे यह और भी पुख्ता हो गया कि कुछ लोग भाजपा का दामन थामने की तैयारी में है। इस सम्मेलन के बाद हुए विधानसभा के आखिरी सत्र में भाजपा के हमले का जबाव देने के लिये कौल सिंह और मुकेश अग्निहोत्राी के अतिरिक्त कोई आगे नही आया। अब इस परिदृश्य में वीरभद्र ऐसी टीम का चुनावों में नेतृत्व करने का जोखिम क्यों और कैसे उठायें यह सवाल आज प्रदेश से लेकर दिल्ली तक सबके लिये गंभीर मुद्दा बन गया है।
लेकिन इसी के साथ एक बड़ा सच यह है कि वीरभद्र और सुक्खु दोनों ही पक्ष बराबर के कमजोर भी है। क्योंकि किसी के पास भी भाजपा के खिलाफ ठोस आक्रामकता अपनाने वाला कोई नेता नही है। वीरभद्र खेमें को सबसे बड़ा रणनीतिकार माने जाने वाले हर्ष महाजन तो जब वह आवास मन्त्री के रूप में विवादित हुए थे तब से लेकर आज तक चुनाव लड़ने का साहस ही नही कर पाये हैं। आशा कुमारी के सिर पर भी केस की तलवार लटकी हुई है। वीरभद्र के मन्त्री मुकेश, सुधीर, भरमौरी और प्रकाश चौधरी तो स्वयं भाजपा के निशाने पर चल रहे हैं फिर अपना चुनाव क्षेत्रा छोड़कर भाजपा पर अटैक का समय कैसे निकाल पायेंग। फिर चुनाव तो सरकार के काम काज पर लड़ा जाता है और वीरभद्र सरकार इस पूरे कार्यकाल में भाजपा नेताओं को किसी भी मामले में घेर ही नही पायी है। इसमें वीरभद्र के गिर्द बैठे अधिकारियों और विजिलैन्स टीम की जो भूमिका रही है उससे सरकार की केवल फजीहत ही हुई है। प्रदेश अध्यक्ष सुक्खु के लिये इस बार भी उनका गृहक्षेत्र नादौन सुरक्षित नही है। वह शायद शिमला से लड़ने के प्रयास कर रहे हैं। ऐसे में आज प्रदेश में कांग्रेस का सबकुछ आकर एक प्रकार से वीरभद्र के गिर्द ही केन्द्रित होकर रह गया है। लेकिन वीरभद्र इसी के साथ अपने मामलों में भी उलझे हुए हैं और इसी के लिये उन्हे न केवल चुनाव लड़ना ही बल्कि जीतना भी राजनीतिक विवशता बन गयी है।