शिमला/शैल। प्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठतम नेता और मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह विधानसभा चुनाव लड़ेंगे या नही लड़ेंगे? लड़ेंगे तो कहां से लड़ेंगे। इन चुनावों में पार्टी को लीड करेंगे या नही करेंगे? दन सवालों पर अब तक संशय बना हुआ है क्योंकि इस संद्धर्भ में उनके ब्यान बराबर बदलते आ रहे हैं। इस बारे में अगर कुछ स्पष्ट है तो सिर्फ इतना कि इस समय उनकी राजनीतिक प्राथमिकता सुक्खु को अध्यक्ष पद से हटवाना बन गया है। ऐसे में यह सवाल उठता जा रहा है कि यदि सुक्खु अध्यक्ष पद से नही हटते हैं तो वीरभद्र का अगला कदम क्या होगा? वीरभद्र को हाईकमान का क्या रूख रहता है? इस पर सुक्खु और वीरभद्र से असहमति रखने वाले दूसरे नेताओं का स्टैण्ड क्या होता है? यह सवाल इस प्रदेश कांग्रेस के लिये सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है जबकि भाजपा ने प्रदेश सरकार और कांग्रेस के खिलाफ पूरा हमला बोल रखा है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमितशाह 22 को कांगड़ा में आयोजित होने जा रही हुंकार रैली में इस हमले को और भी धार देने वाले हैं। भाजपा के हमलों का जवाब देने के लिए कांग्रेस का कोई बड़ा नेता सामने आने का साहस नही जुटा पा रहा है। ऊपर से यह भ्रम भी फैला हुआ है कि कांग्रेस के कई नेता पार्टी छोड़कर कभी भी भाजपा का दामन थाम सकते हैं। क्योंकि कुछ नेताओं का आचरण ही इसके स्पष्ट संकेत दे रहा है।
इस परिदृष्य में यह आंकलन महत्वपूर्ण हो जाता है कि वीरभद्र ऐसा स्टैण्ड ले क्यों रहे है? वीरभद्र हर चुनाव में पार्टी पर अपना एक छत्र अधिकार चाहते हैं और जब ऐसा होने में कोई बाधा आती है तब वह बगावत के किसी भी हद तक चले जाते है। 1983, 1993 और 2012 में घटे घटनाक्रमों की जानकारी रखने वाले यह अच्छी तरह से जानते हैं कि हाईकमान को उनकी शर्ते माननी ही पड़ी है लेकिन क्या इस बार भी ऐसा हो पायेगा? क्योंकि इस समय के वीरभद्र के अपने खिलाफ जो मामले खड़े हैं यदि उनके दस्तावेजी प्रमाण चुनाव अभियान के दौरान सार्वजनिक चर्चा में आ खडे़ होते है तो वीरभद्र और पूरी पार्टी के लिये संकट खड़ा हो जायेगा। 2014 के लोकसभा चुनावों में जब इन मामलों की चर्चा उठी थी तो कांग्रेस को 68 में से 65 हल्को में हार का मुख देखना पड़ा था जनता भ्रष्टाचार के आरोपों पर जितने विरोध में आ जाती है उतना समर्थन वह विकास कार्यो पर नही देती है यह एक राजनीतिक सच बन चुका है और इसमें कांग्रेस की स्थिति बहुत कमजोर है यह भी स्पष्ट हो चुका है। इसके बावजूद वीरभद्र पूरी पार्टी को आॅंखे दिखा रहे हैं। जबकि चुनाव सरकार की परफारमैन्स पर लड़ा जाता है अकेले पार्टी के प्रचार अभियान के दम पर नही और इस समय सरकार की छवि माफिया राज बनती जा रही है। विकास के नाम भी जो काम ऊना के हरोली विधानसभा क्षेत्र और शिमला के शिमला ग्रामीण में हुए उनके मुकाबले में दूसरे क्षेत्रों में तो 10ः भी नहीं है। कांग्रेस के अपने ही विधायक इसकी शिकायतें करते रहे हैं। यही कारण है कि यह लोग आज खुलकर वीरभद्र के साथ खड़ेे नही हो पा रहे हैं। क्योकि इन विधायकों को नजरअन्दाज करके इनके क्षेत्रों से जिन लोगों को विभिन्न निगमो/वार्डो में ताजापोशीयां दी गयी थी वह सब आज समानान्तर सत्ता केन्द्र बनकर टिकट के दावेदार बने हुए है। इनमें से अधिकांश को ताजापोशीयां विक्रमादित्य की सिफारिश पर मिली है और वहीं विक्रमादित्य की अपनी राजनीतिक ताकत भी बने रहे हैं। इन्ही की ताकत पर विक्रमादित्य समय - समय पर चुनाव टिकटों के वितरण के लिये मानदण्ड तय करने को लेकर ब्यान देते रहे है।
ऐसे में माना जा रहा है कि वीरभद्र सिंह पर विक्रमादित्य के अधिक से अधिक समर्थकों को टिकट दिलवाने का दवाब है जबकि जिन क्षेत्रों से पार्टी के पास मौजूदा विधायक है वहां पर इन लोगों को टिकट देना आसान नही। सुक्खु बतौर कांग्रेस अध्यक्ष वर्तमान विधायकों के लिये एक मात्र सहारा रह गये हैं क्योंकि यह ब्यान आते रहे हैं कि कई वर्तमान विधायकों के टिकट भी कट सकते हैं। विक्रमादित्य के समर्थकों को टिकट तभी सुनिश्चित हो सकते हैं यदि टिकट बंटवारे पर केवल वीरभद्र सिंह का ही अधिकार रहे। अन्यथा वीरभद्र का सुक्खु से और क्या विरोध हो सकता है। शिंदे ने भी संभवतः इसी व्यवहारिकता को ध्यान में रखकर यह कहा था कि चुनाव वीरभद्र की ही लीडरशीप मे लड़े जायेंगे लेकिन सुक्खु को भी नही हटाया जायेगा लेकिन वीरभद्र इस आश्वासन से भी सन्तुष्ट नही हुए तो स्पष्ट है कि वह इस समय पार्टी की सिफारिश पर नही वरन् अपनी ईच्छा से टिकट वितरण चाहते हैं और यह तभी संभव है जब सुक्खु अध्यक्ष न रहे। माना जा रहा है कि वीरभद्र सिंह अर्की के कुनिहार में 25 तारीख को भाजपा की हुंकार रैली के जवाब में एक उससे भी बड़ी रैली आयोजित करने जा रहे है। इस रैली में वीरभद्र अपनी ताकत का प्रदर्शन करेंगें यदि यह रैली वीरभद्र की ईच्छा के अनुसार एक सफल रैली हो जाती है तो संभव है कि एक बार फिर हाईकमान वीरभद्र की शर्तो को मान ले। लेकिन इस रैली का सफल होना इस पर निर्भर करता है कि क्या अमितशाह की 22 की रैली में कांग्रेस का कोई नेता भाजपा में शामिल होता है या नही। अभी हर्षमहाजन ने जिस तरह से जीएस बाली और वीरभद्र में फिर से बैठकें करवाई हैं उसे इसी प्रयास के रूप मे देखा जा रहा है।