प्रदेश में चल रहे निजी स्कूलों ने इस शैक्षणिक सत्र से 15% फीसें बढ़ा दी हैं। अभिभावक इस फीस वृद्धि से परेशान ही नही आतंकित हैं। फीस ही नही यह स्कूल अब किताबें और वर्दीयां भी अपरोक्ष में बेच रहे हैं क्योंकि इसके लिये कुछ ही दुकानें चिन्हित की जाती हैं। वर्दी आदि में अकसर कोई न कोई छोटा सा बदलाव कर दिया जाता है। जिसके कारण हर साल यह वर्दी नयी लेनी पड़ती है। अपने आप कपड़ा लेकर अभिभावक खुद वर्दी सिला नही सकते। इसलिये उस चिन्हित दुकान से ही यह सब कुछ लेना पड़ता है। किताबें-काॅपियां भी स्कूल से लेनी पड़ती है और उन पर जिल्द चढ़ाने का काम अभिभावकों को स्वयं करना होता है। स्कूल या चिन्हित दुकान द्वारा दिये जा रहे सामान की गुणवत्ता पर कोई सवाल पूछने का असर बच्चे पर पड़ता है। उसे एक तरह से प्रताड़ित किया जाता है। पढ़ाई के स्तर की स्थिति यह रहती है कि यदि अभिभावक खुद घर में न पढ़ायें तो बच्चा स्कूल में चल ही नही सकता। क्योंकि होम वर्क और टेस्ट का इक्ट्ठा इतना बोझ बच्चे पर आ जाता है कि दोनों काम एक साथ कर पाना स्वभाविक रूप से संभव ही नही हो सकता। हर रोज बच्चे की नोट बुक पर कोई न कोई नोट रहता है लेकिन बच्चे को गलती पर समझाया नही जाता है कि यह गलती है और इसका सही यह है। यह व्यवहारिक स्थिति लगभग सभी स्कूलों की है।
आज आर्य समाज, डीएवी (दयानन्द ऐंग्लो वैदिक) और दयानन्द पब्लिक नाम से अलग-अलग संस्थाएं हो गयी हैं जो कभी एक ही हुआ करती थी। यह कब और क्यों अलग-अलग हुई मैं इसमें नही जाना चाहता। यह संस्थाएं इंग्लिश पब्लिक स्कूलों के विकल्प के तौर पर आयी थी और कुछ समय तक सही में इन्होनंे इस दिशा में काम भी किया है। लेकिन आज यह सारी व्यापारिकता इन संस्थाओं के स्कूलों में इस कदर आ गयी है कि इंग्लिश स्कूलों को भी इन्होनें पीछे छोड़ दिया है। पिछले दिनों शिमला के लक्कड़ बाज़ार स्थित डीएवी स्कूल की नौंवी कक्षा केे विद्यार्थी को लेकर अभिभावकों ने मीडिया में भी दस्तक दी थी। सरोकार था कि इस क्लास के बीस छात्र वार्षिक परीक्षा परिणाम में फेल दिखा दिये गये। इनके अभिभावक इक्ट्ठे हुए और उन्होने स्कूल से प्रार्थना की कि उनके बच्चों की छुट्टियांे के बाद फिर से परीक्षा ले ली जाये। काफी अनुनय-विनय के बाद स्कूल इसके लिये सहमत हो गया। बच्चों ने छुट्टियों में और मेहनत की फिर परीक्षा दी लेकिन इस बार फिर सारे बच्चे पहले से भी ज्यादा अन्तर से फेल हो गये। इस पर अभिभावकों ने स्कूल से इनके पेपर दिखाने का आग्रह किया। लेकिन इस आग्रह को माना नही गया। पेपर न दिखाने का कोई ठोस कारण भी नही बताया गया। यह एक निजी स्कूल है सरकारी तन्त्र का इसमें कोई दखल नही है। इस कारण से इन अभिभावकों के पास स्कूल की इस हठधर्मी का कोई ईलाज नही है। सिवाय इसके कि वह बच्चों को यहां से निकालकर कहीं और ले जायें और फिर दूसरा स्कूल इन फेल बच्चों को अपने यहां दाखिला क्यों दे इसकी कोई गारंटी नही। ऐसे में अभिभावकों की पीड़ा का अनुमान लगाया जा सकता है क्योंकि इन्होनें हजा़रो रूपये इन पर खर्च किये हैं। इसी तरह पिछले वर्ष शैमराॅक स्कूल को लेकर भी अभिभावक शिकायत कर चुके हैं।
इस परिदृश्य में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि यदि नर्सरी के बच्चे की फीस 42000 रूपये जायेगी तो अगली क्लासों में यह कहां तक बढे़गी और जिन माता-पिता को दो बच्चांे की फीस ऐसी देनी पडे़गी उनकी हालत क्या हो जायेगी। प्रदेश में जब कई निजी विश्वविद्यालय धूमल शासन में खुले थे तब इनके विरोध में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् जैसे छात्र संगठन ने भी सवाल उठाया था कि शिक्षा का बाजा़रीकरण कब तक। हर संवदेनशील व्यक्ति ने इसका समर्थन किया था। आज संयोगवश प्रदेश के मुख्यमन्त्री और शिक्षा मंत्री से लेकर कई अन्य मन्त्री और विधायक इसी छात्र संगठन से जुड़े रहे हैं। इस नाते यह लोग इस पीड़ा को आसानी से स्वयं समझ सकते हैं कि सही में स्कूल शिक्षा कितनी मंहगी होती जा रही है और यह मंहगा होना ही इसका बाज़ारीकरण है।
अब सवाल उठता है कि इसका हल क्या है। इसके लिये सबसे पहले यह मानना होगा कि आज रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी आवश्यकताओं में शिक्षा और स्वास्थ्य भी शामिल हो गया है। रोटी,कपड़ा और मकान अपने में एक बहुत बड़ा बाज़ार बन चुका है क्योंकि भीख मांगने वाले से लेकर अरबपति तक यह सबकी एक बराबर आवश्यकता हैं। शिक्षा भी अब ऐसी ही आवश्यकता हो गयी है। रोटी और मकान की सुनिश्चितता के लिये सस्ते राशन और सस्ते मकान तक सरकार कई योजनाएं ला चुकी हैं। इन योजनाओं का देश की अर्थव्यवस्था पर उपदानों और अनुदानों के माध्यम से कितना बड़ा असर पड़ा है यह अलग से एक विस्तृत चर्चा का विषय है और इस पर चर्चा चल भी पड़ी है। लेकिन क्या शिक्षा को भी उसी स्तर का बाज़ार बनने दिया जा सकता है। क्योंकि रोटी, कपड़ा और मकान में तो स्तर भेद हो सकता है। एक आदमी एक कमरे के मकान में भी गुजारा कर सकता है। साधारण खाना खा सकता है, दूसरे को बड़ा बंगला और फाईव स्टार का खाना चाहिये। लेकिन शिक्षा में ऐसा नही है। सारी शिक्षा का परीक्षा नियन्त्रण अलग-अलग बोर्डों के पास है। इन बोर्डों का पाठ्यक्रम और परीक्षा पेपर सबके लिये एक जैसा ही रहता है। अभी तक किसी भी नीजि स्कूल को अपने में एक अलग बोर्ड के रूप में मान्यता नही है। सरकारी स्कूल और निजी स्कूल के छात्र के लिये अलग-अलग परीक्षा पेपर नही होते हैं। ऐसे में इन स्कूलों की फीस का ढंाचा एक सा क्यों नही रखा जा सकता। क्योंकि अन्तिम कसौटी तो परीक्षा का परिणाम ही है। उसमे यह कोई मायने नही रखता की किसकीे पढ़ाई सरकारी स्कूल से और किसकी नीजि स्कूल से हुई है। आज के निजी स्कूल तो समाज में केवल वर्ग भेद पैदा करने के माध्यम होकर रह गये हैं। इन स्कूलों ने शिक्षा को एक बड़ा बाज़ार बनाकर रख दिया है। क्योंकि हरेक के बच्चे को अच्छी शिक्षा चाहिये और अच्छी शिक्षा की कसौटीे परीक्षा परिणाम की जगह यह हो गया है कि किसने कितने मंहगे स्कूल में शिक्षा ली है। यदि इस स्थिति को समय रहते न नियन्त्रित किया गया तो इसके परिणाम भयानक होंगे।