Friday, 19 September 2025
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काली खो पुल के पत्र पर खामोशी क्यों

शिमला/शैल। क्या लोकतन्त्र सही मे खतरे मे पड़ चुका है? क्या अब इन्साफ की प्रतीक‘‘आंखो पर पटी बंधी देवी’’ का अर्थ बदल चुका है? अब न्यायधीशों को ‘‘माईलाॅर्ड’’ का सम्बोधन अर्थहीन हो चुका है? क्या अब इन्साफ राजनीति की दहलीज़ से होकर मिलेगा? आज यह सारे सवाल एकदम उठ खडे हुए हैं और जवाब मांग रहे हैं लेकिन जवाब कहीं से भी नही आ रहा है। क्योंकि आज देश के सर्वोच्च न्यायालय का भविष्य क्या हो इस पर चिन्ता और चिन्तन करने के लिये इसी सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठ जजों ने प्रधान न्यायाधीश को पत्र लिखकर ‘‘फुल कोर्ट ’’ बुलाने का आग्रह किया है। इससे पहले सर्वाेच्च न्यायालय के ही चार वरिष्ठतम जजों ने पूरी प्रैस के माध्यम से अपनी चिन्ता देश के साथ सांझी की थी। यह कोई पत्रकार सम्मेलन नही था क्योंकि इसमें किसी भी तरह के कोई प्रश्न नही पूछे गये थे और जजों ने भी जो पत्र उन्होने प्रधान न्यायाधीश को लिखा वही प्रैस के सामने रखा था। इसके बाद जब जज लोया की हत्या की जांच किये जाने की मांग को सर्वोच्च न्यायालय नेे खारिज करते हुए याचिकाकर्ताओं को एक तरह से लताड़ लगाई तब प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव 71 सांसदों के हस्ताक्षरों के साथ राज्यसभा में दायर कर दिया गया। देश के उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया है। अब इस खारिज किये जाने को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देने की बात प्रस्तावकों ने की है। इसलिये महाभियोग में लगाये गये आरोपों पर अभी चर्चा करना बहुत संगत नही होगा। लेकिन महाभियोग के इस प्रस्ताव को जज लोया की मौत की जांच की मांग पर आये फैसले का प्रतिफल कहा जा रहा है। इसके लिये मेरा पाठकों से आग्रह है कि वह गोधरा काण्ड के बाद गुजरात में भड़की हिंसा पर एक किताब आयी है। ‘‘गुजरात फाईल्स’’ इसका अध्ययन अवश्य करें। इस किताब को लेकर अगले लेख में विस्तार से चर्चा करूंगा।
लेकिन इस समय इस महाभियोग में लगाये गये आरोपों से हटकर मैं पाठकों का ध्यान अरूणांचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमन्त्री काली खो पुल के उस पत्र की ओर आकर्षित करना चाहूंगा जो उन्होंने अपनी मौत से पहलेे लिखा था। काली खो पुल 9 अगस्त 2017 को अपने घर में सुबह मृत पाये गये थे। जैसे ही उनकी मौत की खबर आयी थी तब सम्बन्धित प्रशासन उनके घर पहुंचा और सारी औपचारिकताओं के बाद उनका अन्तिम संस्कार किया गया था। उस समय यह 60 पन्नों का पत्र सामने आया था। इस पत्र के हर पन्ने पर स्व. पुल के हस्ताक्षर हैं। इस पत्र को आत्महत्या से पूर्व समाने आने से पुल की मौत को आत्महत्या माना गया और पत्र को आत्महत्या से पूर्व का हस्ताक्षरित ब्यान। कानूनी प्रावधानों की अनुपालना करते हुए इस पत्र के आधार पर उनकी जांच किये जाने का प्रशासन ने फैसला लिया था और राज्यपाल राज खोबा ने भी इस जांच का अनुमोदन किया था। लेकिन जब किन्ही कारणों से यह जांच नही की गयी तथा राज्यपाल को भी हटा दिया गया तब पुल की पत्नी दंगविमसाय पुल ने फरवरी 2016 में सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायधीश को पत्र लिखकर इस पत्र में नामित सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की अनुमति मांगी थी। यह अनुमति सर्वोच्च न्यायालय के 1991 में के वीरा स्वामी के मामले में आये फैसले के आधार पर मांगी गयी थी। इस फैसले में जजों को भी 1986 के भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत जनसेवक करार देते हुए यह प्रावधान किया गया है कि सर्वोच्च न्यायालय के जजों के खिलाफ एफआईआर करने के लियेे प्रधान न्यायधीश से अनुमति लेनी होगी। इसी अनुमति के लिये यह पत्र लिखा गया था। लेकिन अनुमति देने की बजाये इस पत्र को याचिका में बदल दिया गया और जस्टिस आदर्श गोयल और जस्टिस यू यू ललित की खंडपीठ को सुनवायी के लिये दिया गया। जस्टिस गोयल ने अपने को मामले से यह कहकर हटा लिया कि उन्होने जस्टिस केहर के साथ काम किया है। श्रीमति पुल को अन्ततः यह पत्र वापिस लेना पड़ा जिसको लेकर बहुत कुछ कहा गया है।
कालीखो पुल कांग्रेस नेता थे और राज्य में अपने पहले चुनाव जीतने के बाद ही मन्त्री बन गये थे। जब वह मुख्यमंत्री बने उस समय केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी। प्रणव मुखर्जी वित्त मन्त्री थेे तब उन्होंने राज्य के लिये 200 करोड़ की ग्रांट लेने के लियेे कैसे कांग्रेस नेताओं नारायण स्वामी, कमलनाथ, सलमान खुर्शीद, गुलाम नवी आजाद, मोती लाल बोहरा और कपिल सिब्बल के साथ उनकी मुलाकातें रही और किसने उनसे क्या मांगा इसका पुरा खुलासा उनके पत्र में है। लेकिन सबसे बड़ा खुलासा तो सर्वोच्च न्यायालय के जजों को लेकर है। किसने कैसे कितने पैसे उनसे मांगे किसको क्या दिया इसका पूरा खुलासा है। इसमें मुख्य न्यायधीश रहे जस्टिस केहर और अब मुख्य न्यायधीश दीपक मिश्रा तक का नाम है। सर्वोच्च न्यायालय के चार जजों का नाम इस पत्र में है। 86 करोड़ से लेकर 49 करोड़ और 37 करोड़ की मांग की गयी। कपिल सिब्बल को लेकर भयानक खुलासा है। यह पत्र एक पूर्व मुख्यमन्त्री का अपनी आत्महत्या से कुछ पहले लिखा गया पत्र है। यह पत्र सार्वजनिक हो चुका है। इसलिये आज जब महाभियोग की बात की जा रही तब क्या यह पत्र उसमें प्रसांगिक नही है? इस पत्र पर जांच क्यों नही होनी चाहिये। इस पत्र को लेकर सभी राजनीतिक दल खामोश क्यों है। इसी तरह की खामोशी गुजरात फाईल्स को लेकर है। क्या यह खामोशी पूरी व्यवस्था पर अविश्वास नही खड़ा करती है।

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