Friday, 19 September 2025
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नोटबंदी के दो साल बाद भी

नोटबंदी का फैसला आठ नवम्बर 2016 को लिया गया था। आज दो साल बाद भी विपक्ष प्रधानमंत्री मोदी से सार्वजनिक माफी मांगने की मांग कर रहा है। पूर्व प्रधानमंत्री एवम् जाने माने अर्थशास्त्री डा. मनमोहन सिंह ने भी कहा है कि नोटबंदी के जख्म लम्बे समय तक पीड़ा देते रहेंगे। जबकि वित्त मन्त्री अरूण जेटली इस फैसले की वकालत यह कह कर रहे हैं कि इसके बाद टैक्स अदा करने वालों की संख्या बढ़ी है। यह सही है कि टैक्स अदा करने वालों की संख्या में करीब 80% की बढ़ौतरी हुई है। नोटबंदी से पहले यह संख्या 3.8 करोड़ जो अब बढ़ कर 6.4 करोड़ हो गयी है। लेकिन यह संख्या बढ़ने के और भी कई कारण हैं। केवल नोटबंदी से ही ऐसा नही हुआ है। यदि फिर भी जेटली के तर्क को मान लिया जाये तो यह सवाल उठता है कि क्या नोटबंदी टैक्स अदा करने वालों की सख्या बढ़ाने के लिये की गयी थी? क्या देश को यह बताया गया था कि इस उद्देश्य के लिये यह कदम उठाना अपरिहार्य हो गया है? शायद ऐसा कुछ भी नही कहा गया था। उस समय यह कहा गया था कि देश में कालाधन एक समान्तर अर्थव्यवस्था की शक्ल ले चुका है और इससे आतंकी गतिविधियों को फण्ड किया जा रहा है। प्रधानमंत्री ने देश से पचास दिन का समय मांगा था और वायदा किया था कि उसके बाद हालात एकदम सामान्य हो जायेंगे।
नोटबंदी के दौरान बैंकों के आगे लगने वाली लम्बी कतारों में देश के सौ लोगों की जान गयी है। लाखों लोगों का रोजगार छिन गया है। निर्माण उद्योग अब तक उठ नही पाया है। छोटे और मध्यम उद्योग इससे बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। कालेधन को लेकर स्वामी रामदेव जैसे दर्जनों सरकार और मोदी के प्रशंसको ने इसके कई लाख करोड़ होने के ब्यान देकर एक ऐसा वातावरण देश के अन्दर खड़ा कर दिया था जिससे यह लगने लगा था कि सही में कालाधन एक असाध्य रोग बन चुका है। लेकिन अब जब आरबीआई ने पुराने नोटों को लेकर अपनी अधिकारिक रिपोर्ट देश के सामने रखी है तो उसमें यह कहा गया है कि 99.3% पुराने नोट केन्द्रिय बैंक के पास वापिस आ गये हैं। अर्थात 99.3% पुराने नोटों को नये नोटों से बदल लिया गया है। इस आंकड़े में नेपाल में वापिस आये नोट शामिल नही है। यदि यह अंकड़ा भी इसमें जुड़ जाये तो यह प्रतिशत और बढ़ जायेगा। आरबीआई के इस आंकड़े से दो ही सवाल खड़े होते हैं कि या तो देश में कालेधन को लेकर किया गया प्रचार गलत था निहित उद्देश्यों से प्रेरित था और केवल नाम मात्र ही था जो कि आरबीआई के ही 13000 करोड़ के आंकड़े से प्रमाणित हो जाता हैं। यदि कालेधन को लेकर प्रचारित हुए आंकड़े सही थे तो सीधा है कि नोटबंदी के माध्यम से उस कालेधन को सफेद में बदलने का काम किया गया है। इन दोनों स्थितियों में से कौन सी सही है इसका जवाब तो केवल प्रधानमन्त्री, वित्त मन्त्री ही दे सकते हैं और वह दोनों इस पर चुप हैं।
इस परिप्रेक्ष में आज स्थिति यहां तक आ गयी है कि मोदी सरकार आर बी आई से उसके रिजर्व फण्ड में से एक से तीन लाख करोड़ रूपये की मांग कर रही है क्योंकि चुनावी वर्ष में सरकार को खर्च करना चुनाव जीतने के लिये। इसी मकसद से तो सरकार 59 मिनट में एक करोड़ का कर्ज देने की योजना लेकर आयी हैं आरबीआई और केन्द्र सरकार के बीच इसी मांग को लेकर इन दिनो संबंध काफी तनावपूर्ण हो गये है क्योंकि आरबीआई सरकार की इस मांग का अनुमोदन नही कर रहा है। जबकि मोदी सरकार यह पैसा लेने के लिये आरबीआई एक्ट की धारा 7 के प्रावधानों को इस्तेमाल करने तक की चेतावनी दे चुकी है। आरबीआई और केन्द्र सरकर के बीच उभरे इस नये मुद्दे से यह सवाल भी खड़ा होता है कि यदि नोटबंदी का देश की अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा होता और सरकार के अपने पास पैसा होता उसे आरबीआई के रिजर्व से मांगना नही पड़ता। इस मांगने से यह भी सामने आता है कि सरकारी कोष में इतना पैसा नही है जिससे सरकार की सारी चुनावी घोषणाओं को आंख बन्द करके पूरा किया जा सके।
यही नही एनपीए की समस्या और गंभीर हो गयी हैं। 31 मार्च 2018 को यह एनपीए 9.61 लाख करोड़ हो गया जबकि मार्च 2015 में यह केवल 2.67 लाख करोड़ था। इसमें भी सबसे रोचक तथ्य तो यह है कि 9.61 लाख करोड़ में से केवल 85,344 करोड़ ही कृषि और उससे संबधित उद्योगों का है। शेष 98% बड़े आद्यौगिक घरानों का है। इस एनपीए को वसूलने के लिये कारगर कदम उठाना तो दूर इन बड़े कर्जदारो के नाम तक देश को नही बताये जा रहे हैं जबकि सर्वोच्च न्यायालय इन नामों को सार्वजनिक करने के निर्देश दे चुका है। लेकिन इसके वाबजूद भी यह नाम सुभाष अग्रवाल के आरटीआई आवेदन पर नही बताये गये। इसको लेकर अब देश के चीफ सूचना आयुक्त ने आरबीआई को कड़ी लताड़ लगाते हुए देश का पैसा डुबाने वालों के नाम उजागर करने के निर्देश दिये हैं। इन नामों को उजागर करने के लिये मोदी जेटली भी खामोश बैठे हैं और इसी से उनकी भूमिका को लेकर भी सवाल खड़े होते हैं। ऐसे में नोटबंदी के दो साल बाद भी देश की अर्थव्यवस्था आज जिस मोड़ पर पहुंच चुकी है उससे स्पष्ट कहा जा सकता है कि नोटबंदी एक घातक फैसला था।

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