ऐसे परिदृश्य में राहुल के बाद कांग्रेस की कमान पुनः सोनिया को सौंपना पार्टी के कितना हित में रहेगा इसका आकलन करने से पहले कांग्रेस से हटकर अन्य विपक्षी दलों पर नजर डालना आवश्यक हो जाता है। लोकसभा चुनावों के पहले ही यह सवाल उठ खड़ा हुआ था कि यदि विपक्ष जीत भी जाता है तो उसका नेता कौन होगा। यह सवाल भी भाजपा की ओर से ही उछाला गया था। इस सवाल पर विपक्ष में क्या कुछ घटा इसको यहां दोहराने की आवश्यकता नही है। भाजपा ने जहां विपक्ष पर नेता का सवाल उछाला वहीं पर सबसे अधिक राजनीतिक गाली अकेले राहुल गांधी को निकाली। राहुल गांधी ने तो नेता का सवाल बहुमत के निर्णय पर छोड़ दिया लेकिन अन्य विपक्षी नेता पूरी स्पष्टता से ऐसा नही कर पाये। उत्तर प्रदेश में वसपा-सपा ने कांग्रेस को गठबन्धन से अपरोक्ष में नेता के सवाल पर ही अलग किया था। चुनावों के दौरान ईवीएम एक बड़ा मुद्दा विपक्ष ने बनाया। इसको लेकर चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय तक गये। बिहार में उपेन्द्र कुशवाह जैसे नेताओं ने चुनावों के बाद ईवीएम पर एक बड़ा आन्दोलन खड़ा करने की बातें की थी। लेकिन चुनाव हारने के बाद यह पूरा विपक्ष राजनीतिक परिदृश्य से एक तरह से लोप ही हो गया है। जबकि ईवीएम को लेकर ही मुबई और ग्वालियर उच्च न्यायालयों में गभीर याचिकाएं लंबित हैं। आज हर विपक्षी दल में टूटन आयी है उसके चुने हुए लोग भाजपा में शामिल हो रहे हैं और लगभग हर बड़े नेता के खिलाफ ईडी और सीबीआई में मामले बनते जा रहें हैं। लेकिन इस सबके बावजूद विपक्ष की ओर से कोई सामूहिक आवाज़ सामने नही आ रही है। विपक्षी एकता के जो प्रयास लोकसभा चुनावों के दौरान चल रहे थे वह आज शांत क्यों हो गये हैं।
जब से राहुल गांधी ने त्यागपत्र दिया और टीवी चैनलों की बहसों के पैनलों में पार्टी की भगीदारी को विराम दिया तो कांग्रेस और राहुल के चुप होने के साथ ही वाकी विपक्ष क्यों चुप हो गया। जबकि जो सवाल चुनावों के दौरान राहुल गांधी ने उठाये थे वह सवाल आज पूरी स्पष्टता के साथ हर आदमी के सामने है। देश की आर्थिक स्थिति एक गंभीर दौर से गुजर रही है। मोदी सरकार द्वारा ही नियुक्त आरबीआई गवर्नरों और सरकार के आर्थिक सलाहकार का समय से पहले ही अपने पदों से त्यागपत्र देना इसके संकेत हैं। साढ़े आठ लाख करोड़ के एनपीए के आंकड़े संसद में आ चुके हैं। अंबानी पर आरबीआई का रैडफ्लैग अपने में ही एक बहुत बड़े आर्थिक संकट का संकेत है। 2014 में आम आदमी की बचतों पर जो उसे बैंको से ब्याज मिलता था उसमें 2019 में करीब 3% की कमी आयी है। आम आदमी की इस 3% की कटौती का लाभ किसे दिया जा रहा है। आज कुछ औद्यौगिक क्षेत्रों से तीन लाख से अधिक लोगों को नौकरी से निकाला जा चुका है। यह सवाल आम आदमी से सीधे जुड़े हुए हैं और देर सवेर वह इन पर चर्चा करेगा ही। लेकिन इन सवालों पर देश का मोदी भक्त मीडिया चुप्पी साधे हुए है क्योंकि उसे 800 करोड़ विज्ञापनों के रूप में सरकार द्वारा दिये जा चुके हैं और यह जानकारी आरटीआई के माध्यम से सामने आयी है। ऐसे में जब आम आदमी के सवालों पर मीडिया चुप्पी साध लेता है तब यह जिम्मेदारी राजनीतिक दलों पर आती है कि वह जनता की आवाज बनकर सामने आये। परन्तु दुर्भाग्य से आज विपक्ष यह जिम्मेदारी निभा नही पा रहा है।
आज देश गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रहा है। सरकार ने सारे सार्वजनिक उपक्रमों से उनके 75% सरप्लस संसाधनो की मांग कर ली है। इस मांग का सैबी के अध्यक्ष अजय त्यागी ने पत्र लिखकर विरोध भी किया है। आशंका है कि आर बी आई से भी उसका 75% सरप्लस इसी तरह मांग लिया जायेगा। सर्वाेच्च न्यायालय में छुट्टीयों के दौरान जिस तरह से अदानी समूह के चार मामले सुन लिये गये हैं उस पर शीर्ष अदालत के वरिष्ठ वकील दुष्यन्त दावे ने प्रधान न्यायधीश को पत्र लिखकर चिन्ता व्यक्त की है उससे कई गंभीर सवाल खड़े हो जाते हैं। आम्रपाली प्रकरण में क्रिकेट स्टार महेन्द्र सिंह धोनी और उनकी पत्नी साक्षी के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में सौंपी गयी आडिट रिपोर्ट में आक्षेप उठाये गये हैं वह अपने में एक अलग मुद्दा खड़ा करता है। लेकिन दुर्भाग्य है कि इस तरह के सारे गंभीर मुद्दों पर विपक्ष एकदम, खामोश हो गया है।
ऐसे में जब देश राजनीतिक संक्रमण के दौर से गुजर रहा हो तो क्या देश के
सबसे पुराने राजनीतिक दल को अपनी सार्वजनिक जिम्मेदारी निभाने के लिये अपनी सुविधानुसार फैसला लेने का अधिकार नही होना चाहिये। कांग्रेस का अध्यक्ष कौन हो यह निर्णय कांग्रेस का अपना मामला है। कांग्रेस को ही इसके पक्ष और विपक्ष में राय बनानी है। कांग्रेस के इस फैसले पर गैर कांग्रेसी
दलों को एतराज उठाने का कोई अधिकार नही है। जो भी दल और मीडिया चैनल इस पर परोक्ष/अपरोक्ष में आपति जता रहे हैं उससे केवल उनकी प्रमाणिकता ही सामने आ रही है। अनचाहे ही वह अपने को भाजपा का पक्षधर प्रमाणित करने का प्रयास कर रहे हैं। सोनिया के कमान संभालने के बाद देखना यह होगा कि क्या अब भी चुने हुए विधायक/सांसद इस फैसले का विरोध करके पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल होते हैं या नही। इसी के साथ यह भी टैस्ट होगा कि आने वाले दिनों में चार राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों में मोदी-भाजपा लहर के सामने कांग्रेस का प्रदर्शन क्या रहता है। क्या कांग्रेस पूरी आक्रामकता के साथ इन चुनावों में उत्तर पाती है या नही सोनिया के लिये यही बड़ी परीक्षा होगी। क्योंकि विपक्षी दल अभी भी अपनी वैचारिक अस्पष्टता के बाहर नही आ पा रहे हैं। भाजपा के मानसिक दबाव के कारण यह दल टूटते जा रहे हैं भाजपा के लिये यह शुभ हो सकता है परन्तु देश के लिये नही। क्यों निरंकुश सता का अन्तिम प्रतिफल पूर्ण भ्रष्टाचार ही होता है। ऐसे राजनीतिक परिदृश्य में कांग्रेस ने जो सोनिया को कमान देकर देश के प्रति अपनी राजनीतिक जिम्मेदारी निभाने का फैसला लिया है उसका स्वागत किया जाना चाहिये।