Friday, 19 September 2025
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नोटबंदी से आर बी आई तक

मोदी सरकार ने आरबीआई से 1.76 लाख करोड़ उसके सुरक्षित कोष से ले लिया है। यह पैसा लेने पर सरकार की आर्थिक नीतियों पर पहली बार एक बहस उठ खड़ी हुई है क्योंकि ऐसा शायद पहली बार हुआ है। कुछ लोग इसे सरकार का अधिकार मान रहे हैं। उनका तर्क है कि यह पैसा आर बी आई के पास सरप्लस पड़ा था जो सरकार के पास आकर सीधे निवेश में चला जायेगा। कुछ का मानना है कि यह एक गलत आचरण है और इससे आने वाले दिनों में इस सैन्ट्रल बैंक की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठने शुरू हो जायेंगे। इस आशंका का आधार शायद बैंको का लगातार बढ़ता एनपीए है जिसे सख्ती से वसूलने के उपाय करने की बजाये उन्हें इस तरह से धन उपलब्ध करवा करके और छूट दी जा रही है। यह आशंका निराधार नही हैं क्योंकि बैंक आम आदमी के जमा पर दिये जाने वाले ब्याज में कटौती करके उसका लाभ कर्जदार की ब्याज दर कम करके उसको दे रहे हैं और इस कर्ज को वापिस लेना सुनिश्चित नही हो रहा है। मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों और वित्तमन्त्री के प्रबन्धन के सबसे पहले विरोधी बाजपेयी सरकार में रहे वित्तमन्त्री यशवन्त सिन्हा और उस समय विनिवेश मंत्री रहे अरूण शौरी तथा जाने माने अर्थशास्त्रीय राज्य सभा सांसद डा.स्वामी रहे हैं। ऐसे में यह समझना बहुत आवश्यक हो जाता है कि ऐसी स्थिति उभरी ही क्यों? इसके लिये 2014 के लोकसभा चुनाव की तैयारियों के दौरान जो कुछ घटा है उस पर भी नज़र दौड़ाना आवश्यक हो जाता है। उस समय राजनाथ सिंह भाजपा के अध्यक्ष थे। उन्होने चुनावों के लिये एक स्ट्रैटेजिक कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी का अध्यक्ष डा.स्वामी को बनाया गया था और इसमें रा, सैन्य गुप्तचर तथा आई बी के पूर्व अधिकारी थे। इस कमेटी ने अपने अध्ययन के बाद कालेधन को देश की सबसे बड़ी समस्या बताया था। जाली नोटों और आतंकवाद के लिये कालेधन को ही जिम्मेदार ठहराया गया था। इन समस्याओं का एक मात्र कारगर हल नोटबन्दी माना गया था। इसलिये यह दावा किया गया था कि नोटबंदी से कालाधन, जाली नोट और आतंकवाद सब कुछ समाप्त हो जायेगा। कमेटी की इस धारणा को जुलाई 2016 में आर बी आई की साईट पर आये मनी स्टाॅक के आंकड़ों से बल मिल गया। इन आंकड़ों के अनुसार उस समय 17,36,177 करोड़ की कंरसी परिचालन में थी। इसमें 475034 करोड़ तो बैंकों की तिजोरीयों में था और 16,61,143 करोड़ जनता के पास थी। जनता के पास 86% कंरसी थी लेकिन यह बैंकों के पास आ नही रही थी। सरकार को मार्च 2019 तक बे्रसल-3 के मानक पूरे करने थे जिसे पूरा करने के लिये पांच लाख करोड़ चाहिये थे। इस आंकड़ों से यह धारणा और पुख्ता हो गयी कि देश में कालाधन सही में है और इसी कारण से यह बैंकों में वापिस नही आ रहा है। ऐसे में यदि नोटबन्दी करके जनता के पास पड़ी 86% कंरसी को चलन से बाहर कर दिया जाये तो सरकार नये सिरे से नयी कंरसी छाप सकती है और इसी से नोटबंदी का फैसला ले लिया गया। लेकिन आगे चलकर इस 86% कंरसी की 99% से भी अधिक की कंरसी वापिस आ गयी। इस 99% पुरानी कंरसी को नयी कंरसी के साथ बदलना पड़ा। परन्तु यह पैसा जनता का था और जनता का ही रहा। इसे नयी कंरसी के साथ जब बदल दिया गया तो यह एकदम सफेद धन हो गया। इसी कारण से आर.बी.आई. और सरकार आज तक यह आकंड़ा जारी नही कर पाये हैं कि देश में कालाधन और जाली नोट कितने थे। इससे उल्टा सरकार पर यह आरोप आ गया कि नोटबन्दी के माध्यम से कालेधन और जाली नोटों को सफेद में बदलने का मौका दे दिया गया। इस नोटबंदी से एन पी ए की समस्या अपनी जगह यथास्थिति बनी रही। यह एन पी ए सबसे अधिक उन घरानों का था जिन्होंने चुनावों में खुलकर धन साधनों को योगदान दिया था इसीलिये आगे चलकर सरकार को इन घरानों का 8.5 लाख करोड़ राईट आफ करना पड़ा। यह आकंड़ा संसद में आप सांसद सजंय सिंह ने रखा है जिसका सरकार कोई जवाब नही दे पायी है। इस तरह जब सरकारी खजाने को एन पी ए के नाम पर एक ही झटके में इतनी बड़ी चोट पहुंचा दी जायेगी तो इसका असर पूरी व्यवस्था पर पड़ेगा। इसी एन पी ए के कारण बैंक घाटे में चल रहे हैं बैंको के पास पैसा नही है। सरकार की योजनाओं को पूरा करने के लिये बैंकों को धन उपलब्ध करवाना आवश्यक है लेकिन जब कर्ज को वसूले बिना बैंकों को पैसा दिया जायेगा तो निश्चित और स्वभाविक है कि आर बी आई से उसका रिजर्व ही लिया जायेगा जिसकी शुरूआत अब हो गयी है। यह रिजर्व लेना रूकेगा या नही यह कहना कठिन है। रिजर्व बैंक के पूर्व डिप्टी गर्वनर विरल आचार्य और गवर्नर उर्जित पटेल शायद इसीलिये छोड़ गये हैं क्योंकि वह इससे सहमत नही थे। आज आर बीआई से पैसा लेकर बैंको को रिफांईनैंस करके क्या उद्योगों में जो उत्पादन बन्द हो गया है और नौकरीयां चली गयी है क्या उसे पुनः बहाल किया जा सकेगा? क्या गरीब आदमी की बचत पर ब्याज कम करके उसका लाभ ऋणी को देना एक सही कदम है शायद नही। सरकार को लेकर यह धारणा बन गयी है कि उसकी प्राथमिकता तो बड़े उद्योग घरानों के हितों की रक्षा करना है और यह बात अब आम आदमी तक पहुंचनी शुरू हो गयी है। क्योंकि जिस ढंग से गरीब आदमी को बी पी एल से बाहर निकालने की योजनाएं बन रही है उससे गरीब आदमी सरकार पर ज्यादा देर तक विश्वास नही रख पायेगा। उसे मंदिर-मस्जिद और हिन्दु-मुस्लिम के द्वन्द में ज्यादा देर तक उलझा कर रखना कठिन होगा। आर बीआई से यह पैसा लेने के साथ यदि एन पी ए की वसूली के लिये सही में कड़े कदम न उठाये गये तो इस सबका कोई अर्थ नही रह जायेगा।

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