जब हर मुख्यमन्त्री के कार्यकाल में ऐसी बढ़ौत्तरीयां होती रही हैं और तब इसका कभी न कभी न तो सदन के अन्दर विरोध हुआ और न ही सदन के बाहर जनता में। फिर इसी बार यह विरोध क्यों और इस विरोध का अर्थ क्या है। यह समझना ही इस विरोध का केन्द्र बिन्दु है। आज राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक मंदी एक सार्वजनिक बहस का मुद्दा बन चुका है क्योंकि उत्पादन में लगातार गिरावट आती जा रही है। 2014-15 के मुकाबले आज जीडीपी में 3% की गिरावट आ चुकी है। इसमें सबसे रोचक तथ्य यह है कि जब नोटबंदी लागू करते समय प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने देश से पचास दिन का समय मांगा था और यह दावा किया था कि पचास दिन में सबकुछ ठीक हो जायेगा। इस दावे के साथ यह भी कहा था यदि इस फैसले में कोई गलती निकलती है तो वह जनता द्वारा किसी भी चौराहे पर सजा़ भुगतने को तैयार हैं। लेकिन नोटंबदी पर आई आरबीआई की रिपोर्ट के मुताबिक उस समय 15.44 लाख करोड़ की कंरसी चलन मे थी जो आज बढ़कर 21.10 लाख करोड़ हो गयी है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि नोटबंदी की आड़ में बड़े स्तर पर कालाधन सफेद होकर फिर उन्हीं हाथों के पास जा पहुंचा है जिनके पास पहले था। आज भी 3.17 लाख करोड़ के नकली नोट बाज़ारा मे आ चुके हैं।
नोटबंदी से न तो कालाधन चिन्हित हो पाया है और न ही उसके बाद जाली नोट बंद हो पाये हैं। उल्टा तीन लाख करोड़ का अर्थव्यवस्था को नुकसान हुआ है। जब नरेन्द्र मोदी ने देश से पचास दिन का समय मांगा था उसी समय पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा था कि इस फैसले से आगे चलकर जीडीपी में 3% तक की गिरावट आ जायेगी। आज डा. मनमोहन सिंह का कथन शत प्रतिशत सही सिद्ध हुआ है। जीडीपी में आयी गिरावट से अब तक प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष में करीब एक करोड़ लोग बेरोज़गार हो गये हैं। जमा धन और ऋण दोनो पर ब्याज दरें कम हुई है लेकिन इसके बावजूद निवेश के लिये कोई आगे नही आ रहा है। आर्थिक मंदी से मंहगाई और बढ़ गयी है। जिन लोगों का रोज़गार छिन गया है उन्हें जीवन यापन चलाने में कठिनाई आ रही है। इसी सबका परिणाम है कि आज माननीयों के वेत्तन/भत्ते और पैन्शन तथा अन्य सुविधाओं को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर हो चुकी है। इसी याचिका का परिणाम है कि सांसदों के वेत्तन भत्ते बढ़ाने का प्रस्ताव एक कमीशन को भेजने की बात आयी है। आज जिस तरह की आर्थिक मंदी में देश पहुच गया है उसके लिये इन माननीयों के अतिरिक्त और दूसरा कोई जिम्मेदार नही है।
आज हिमाचल की स्थिति राष्ट्रीय स्थिति से भी दो कदम आगे पहुंच चुकी है। सरकार ने कर्ज और रोज़गार को लेकर सही आंकड़े प्रदेश की जनता के सामने नहीं रखे हैं। विधानसभा में आये लिखित आंकड़ों के बाद भी जब गलतब्यानी की जायेगी तो उसका असर सरकार की विश्वसनीयता पर पड़ेगा ही। इसी का परिणाम है कि जब पर्यटन निगम की परिसंपत्तियों को लीज पर देने की योजना सार्वजनिक हो गयी तो मुख्यमन्त्री को यह कहना पड़ा कि यह सब उनकी जानकारी के बिना हुआ है। इस पर जांच की बात करते हुए सचिव पर्यटक को बदल दिया गया। मुख्य सचिव को तीन दिन में रिपोर्ट सौंपने के निर्देश दिये गये हैं। आज मुख्य सचिव प्रदेश से चले भी गये हैं परन्तु यह रिपोर्ट सामने नही आयी है। क्योंकि जब यह मसौदा तैयार हुआ था तब इसकी प्रैजेन्टेशन मुख्य सचिव और मन्त्री परिषद के सामने भी दी गयी थी। उस पर कुछ अधिकारियों और मन्त्रीयों की टिप्पणीयां भी की हुई हैं ऐसे में इसके लिये किसी एक अधिकारी को दर्शित करना कैसे संभव हो सकता है। इस तरह के कृत्य जब आम आदमी के सामने आयेंगे तो वह सरकार पर कैसे विश्वास बना पायेगा। ऐसे दर्जनों मामले हैं जिनके कारण जनता का सरकार पर से विश्वास लगातार कम होता जा रहा हैै। ऐसे में जनता के सामने जब भी यह आयेगा कि विधायक और मन्त्री इस तरह से अपने वेतन भत्ते बढ़ा रहे हैं तो निश्चित रूप से उसका विरोध होगा ही। आज जनता को एक मौका मिलना चाहिये जहां वह अपने रोष को इस तरह से जुबान दे सके। आज जनता जो भत्ता बढ़ौत्तरी का इस तरह से मुखर विरोध कर रही है वह केवल राज्य सरकार के खिलाफ ही नही वरन् अपरोक्ष में केन्द्र की नीतियों के भी खिलाफ है और इस विरोध के परिणाम दूरगामी होंगे।