‘‘ऐसे मुद्दे जो प्रभावित तो सबको करें परन्तु सबकी समझ न आ सके’’ जब समाज में ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है तब राजनीतिक दलों की आवश्यकता और उनकी भूमिका महत्वूपर्ण हो जाती है। क्योंकि ऐसी परिस्थितियों में आम आदमी को उसी के हाल पर छोड़ देने से काम नही चलता। ऐसी वस्तुस्थिति में पूरी निष्पक्षता के साथ यह आकलन करना पड़ता है कि जो घट रहा है वह कहीं नीतियों की कुटिलता का परिणाम है या नीतियों में ना समझी का प्रतिफल है। क्योंकि नासमझी को तो समझ से दूर किया जा सकता है। जबकि कुटिलता पूरी समझ के साथ, नीयत के साथ की जाती है। ऐसी कुटिलता को जायज ठहराने के लिये साम, दाम, दण्ड और भेद जैसी सारी चाले चली जाती हैं। इस कुटिलता और नासमझी में विवेक करना ही राजनीतिक दलों का धर्म और कर्तव्य है। लेकिन आज विपक्ष इस मानदण्ड पर खरे नही उतर रहे हैं। बल्कि पूरी तरह विमुखनजर आ रहे हैं। ऐसे में यह सवाल उठना भी स्वभाविक है कि ऐसा क्यों हो रहा है। क्या विपक्ष मनोवैज्ञानिक तौर पर ही हताश या निराश हो गया है या उसमें वैचारिक विश्लेषण का संकट आ खड़ा हुआ है। इस संद्धर्भ में यह भी ध्यान में रखना आवश्यक है कि भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले ही देश को कांग्रेस मुक्त करने का लक्ष्य घोषित कर दिया था जो शायद 2019 के चुनावों के बाद विपक्ष मुक्त भारत बन गया है। देश कांग्रेस मुक्त हो जाये या विपक्ष मुक्त यह इतना महत्वपूर्ण नही है इसमें महत्वपूर्ण यह है कि इसमें आम आदमी कहां खड़ा होगा।
इस समय मंहगाई का आलम यह है कि जिस प्याज को लेकर कभी नरेन्द्र मोदी ने ही यह तंज कसा था कि अब प्याज को तिजोरी में रखना पड़ेगा आज वही प्याज उन आंकड़ों से भी आगे निकल गया है लेकिन कहीं से कोई संगठित विरोध सामने नही आ रहा है। जिस व्यवस्था में भीड़ हिंसा पर सवाल उठाने के लिये अदालत सवाल उठाने वालों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के आदेश दे वहां की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। जब देश के कानून मंत्री आर्थिक मंदी को फिल्म की कमाई के तराजू पर तोलने लगे तो उसकी मानसिकता का अनुमान लगाया जा सकता है। जहां विरोध को दबाने के लिये ईडी और सीबीआई जैसी ऐजैन्सीयों का खुलकर उपयोग होने लगे वहां के हालात को समझना आम आदमी के बस की बात नही रह जाती है। सत्ता पक्ष के पास एक विचारधारा है यह विचारधारा भारत जैसे बहुविध समाज के लिये कितनी हितकर हो सकती है? विश्व की दूसरी बड़ी जनसंख्या वाले देश में निजि क्षेत्र के हवाले ही सब कुछ छोड़ देना कितना हितकर हो सकता है। इन सवालों पर आज साहस पूर्ण सार्वजनिक बहस की आवश्यकता है लेकिन यह बहस अंबानी और अदानी के खरीदे हुए चैनलों के मंच से संभव नही है। इसके लिये कांग्रेस जैसे बड़े दल को ही आगे आना होगा। कांग्रेस और उसके नेतृत्व को यह तय करना होगा कि उसके पास खुली लड़ाई लड़ने के अतिरिक्त और कोई विकल्प शेष नही रह गया है। इस लड़ाई के लिये एक बार फिर गांधी और नेहरू की वैचारिक विरासत को विस्तार देना होगा। कांग्रेस जनो और आम आदमी को यह समझना होगा कि नेहरू और डाक्टर प्रशांत चन्द्र महाल नोबिस ने विकास की जो परिकल्पना दूसरी पंचवर्षीय योजना में की थी आज भी वही अवधारणा प्रसांगिक है इस अवधारणा का मूल गांधी की विचारधारा थी कि जिस देश में मैन पावर जितनी अधिक होती है उसका मशीनीकरण बहुत सोच समझकर करना होता है। लाभ की अवधारणा पर आधारित विकास कालान्तर में समाज के लिये घातक होता है यह एक स्थापति सत्य है।