Friday, 19 September 2025
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क्या विधायकों की असहमति ही महत्वपूर्ण है आम आदमी की नहीं

राजस्थान का राजनीतिक प्रकरण प्रदेश उच्च न्यायालय के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय में भी पहुंच गया है। सर्वोच्च न्यायालय में राजस्थान विधानसभा के स्पीकर डा.जोशी ने याचिका दायर की है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर सुनवाई करते हुए एक बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल उठाया है कि ‘‘क्या असहमति की आवाज दबाना लोकतन्त्र को खत्म करना नही हैं।’’ आज पूरा देश इसी सवाल के गिर्द घूम रहा है लेकिन इसका जवाब देने के लिये कोई तैयार नही है। इसलिये सर्वोच्च न्यायालय से आग्रह है कि वह इन विधायकों के सवाल से आगे बढ़कर इसी सवाल पर जनता के अधिकार की भी रक्षा करे। क्योंकि काफी अरसे से असहमति की आवाज को देशद्रोह की संज्ञा दी जा रही है। भीमा कोरेगंाव प्रकरण में जो बुद्धि जीवी गिरफ्तार हैं उनके खिलाफ असहमति की आवाज उठाने का ही अपराध है। पत्रकार विनोद दुआ जैसे लोगों के खिलाफ बनाये गये मामले भी असहमति व्यक्त करने के ही परिणाम हैं। हर राज्य में ऐसे मामले मिल जायेंगे जो वहां के सत्तापक्ष से असहमति रखने के कारण परोक्ष/अपरोक्ष में प्रताड़ना के शिकार हो रहे हैं। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि शीर्ष न्यायपालिका भी इस संद्धर्भ में मूकदर्शक बनी हुई है। भ्रष्टाचार अपने चरम पर है और इसके खिलाफ कोई आसानी से आवाज न उठा सके इसके लिये भ्रष्टाचार निरोधक कानून में ही संशोधन कर दिया गया है। हर विपक्ष हर सत्ता पक्ष के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप पत्र जारी करता है लेकिन स्वंय सत्ता में आकर सबसे पहले स्वयं द्वारा ही सौंपे गये आरोप पत्र पर आॅंखें बन्द करने को काम करता है। यह चलन केन्द्र से लेकर राज्यों तक एक जैसा ही है। स्वर्गीय कालिखो पूल ने अरूणाचल में अपने मुख्यमन्त्री काल में इस संबंध में भोगे कड़वे सच का जो खुलासा आत्महत्या करने से कुछ क्षण पहले लिखे पत्र में किया है वह इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। यह मामला मोदी सरकार के समय घटा और सर्वोच्च न्यायालय तक भी पहुंचा लेकिन इसका पूरा सच आज तक सामने नही आ पाया है। नागरिकता संशोधन अधिनियम पर उठे विरोध/असहमति के स्वरों को कैसे दबाया गया और उस पर शीर्ष न्यायपालिका का रूख क्या रहा है यह पूरे देश के सामने है। इस पर आयी एक सौ से अधिक याचिकाएं आज तक लंबित हैं और इनका लंबित होना किसी भी गणित से लोकतन्त्र का हित नही कहा जा सकता। ऐसे बहुत सारे मुद्दें हैं जो लोकतन्त्र के लिये गंभीर सवाल खड़े करते हैं।
स्वस्थ लोकतन्त्र के लिये सत्तापक्ष के साथ स्वस्थ्य विपक्ष का होना बहुत आवश्यक है। इसी तर्क पर राजनीतिक दलों के भीतर भी असहमति के बीच का पूरा सम्मान होना चाहिये। पार्टी के अनुशासन और असहमति के बीच बहुत ही बारीक सीमा रेखा होती है। प्रायः महत्वाकांक्षा पर असहमति का आवरण डाल दिया जाता है। राजस्थान प्रकरण में भी शायद महत्वाकांक्षा को असहमति प्रचारित किया जा रहा है। क्योंकि इस प्रकरण के मुखर होते ही जिस तरह से केन्द्र की ऐजैन्सीयां आयकर से लेकर ईडी तक सक्रिय हुई हैं और पायलट कैंप को जिस तरह कानूनी सहायता मिली है उससे यह स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है कि इसमें भाजपा एक सक्रिय भूमिका निभा रही है। लोकतन्त्र और दलबदल कानून के लिये इससे ज्यादा घातक कुछ नही हो सकता। देश के कितने राज्यों में कब-कब इस तरह के दलबदल प्रायोजित हुए हैं इसकी सूची लंबी है और उसके विस्तार में जाने का अभी कोई औचित्य नही है क्योंकि उस काम को भाजपा अंजाम दे रही है। क्योंकि उसका हर तर्क नेहरू गांधी कांग्रेस तक पहुंच जाता है। कांग्रेस की हर गलती उसके लिये लाईसैन्स बन जाती है। लेकिन यहां महत्वपूर्ण सवाल यह हो जाता है कि यदि यह सब ऐसे ही चलता रहा तो इसका अन्तिम परिणाम क्या होगा और इसे कैसे रोका जा सकता है। निश्चित रूप से यह सब चुनाव व्यवस्था की कमजोरियों का परिणाम है। लम्बे अरसे से मतदाताओं को सरकारी रिश्वत बांटकर प्रलोभित किया जाता है और चुनाव आयोग इस प्रलोभन पर आंख बन्द कर लेता है। हर बार चुनाव खर्च की सीमा इतनी बढ़ा दी जाती है कि कोई भी आदमी सफेद धन के सहारे चुनाव नही लड़ सकता। चुनाव लड़ रहे व्यक्ति पर चुनाव खर्च की सीमा है परन्तु राजनीतिक दल पर ऐसी कोई सीमा नही है। आचार संहिता के उल्लंघन की शिकायत का निवारण चुनाव याचिका दायर करना ही रह गया है। इसी कारण से आज संसद से लेकर विधान सभाओं तक आपराधिक छवि के लोग हमारे माननीय हो कर बैठे हैं। प्रधानमन्त्री मोदी ने चुनाव में वायदा किया था कि वह संसद को अपराधियों से मुक्त करेंगे। लेकिन आज रिकार्ड पर सबसे अधिक अपराधिक छवि के लोग भाजपा में ही है।
आज जब सर्वोच्च न्यायालय असहमति के सवाल पर विचार करने जा रहा है तब यह आग्रह करना प्रसंागिक हो जाता है कि इस समय ईवीएम को लेकर जो याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय और कुछ उच्च न्यायालयों में लंबित पड़ी हैं यदि उन्ही पर समय रहते फैसला आ जाये तो शायद उसी से लोकतन्त्र का बड़ा भला हो जायेगा। क्योंकि एक याचिका में लोकसभा की 347 सीटों पर ईवीएम और वीवीपैट में आये भयानक अन्तर पर एडीआर ने बड़ी मेहनत करके साक्ष्यों के आधार पर यह मुद्दा उठाया है।

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