प्रधानमन्त्री से लेकर पूरी सरकार किसान विरोध को नाजायज़ बता रहे हैं। बल्कि यह पहली बार हो रहा है कि आम आदमी प्रधानमन्त्री और उनकी सरकार के किसी भी आश्वासन पर विश्वास करने को तैयार नही है। जिस जनता ने प्रधानमन्त्री पर आंख बन्द करके दो बार देश की सत्ता उनके हाथों में सौंप दी आज भी जनता उन पर विश्वास करने को तैयार नही है। इस स्थिति को समझना बहुत आवश्यक हो जाता है। 2014 में देश की जनता ने उन्हें सत्ता सौंपी थी। आज छः वर्षों के मोदी शासन पर नज़र डाले तो इस दौरान नोटबंदी और जीएसटी दो ऐसे सीधे आर्थिक फैसले रहे हैं जिन्होने आज जीडीपी को शून्य से भी नीचे पहुंचाने में पूरी भूमिका अदा की है। लेकिन इन फैसलों से आम आदमी सीधे प्रभावित नही होता था। इसलिये वह इनके विरोध का मन नही बना पाया। हालांकि 2014 से लेकर आज 2020 तक का एक बड़ा कड़वा सच यह भी रहा है कि आम आदमी के बैंकों में हर तरह के छोटे-बड़े जमा पर ब्याज दरें कम हुई हैं बैंको में आम आदमी के जमा पैसे की सुरक्षा को लेकर लगातार प्रश्नचिन्ह लग रहे हैं। अभी करीब दो लाख करोड़ के बैंक फ्राड होने की जानकारी आरटीआई के माध्यम से बाहर आ चुकी है। जीरो बैलैन्स के नाम पर खोले गये जनधन खातों पर मिनिमम बैलैन्स की शर्त लग चुकी है। रसोई गैस पर सब्सिडी कम हो गयी है। उज्जवला योजना में अब मुुफ्त सिलैण्डर मिलना बन्द हो गया है। लेकिन इन सारे फैसलों का एक साथ आकलन करके उनका विरोध करने का मन आम आदमी नही बना पाया। शायद उसको लगा कि इन आर्थिक फैसलों से राम मन्दिर का निमार्ण, तीन तलाक समाप्त करना और जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाकर उसे तीन प्रदेशों में बांटना ज्यादा जरूरी फैसले थे।
इसी परिदृश्य के चलते चलते देश कोरोना के संकट का शिकार हो गया। एकदम बिना किसी पूर्व सूचना के सारे देश को घरों में लाॅकडाऊन के नाम पर बन्दी बना दिया गया। सारी आर्थिक गतिविधियों पर विराम लगा दिया गया। जून में अनलाॅक शुरू हुआ और उसमें पहला बड़ा फैसला आया कि सरकार ने 1955 से चले आवश्यक वस्तु अधिनियम को संशोधित करके अनाज, दल तिहन खाद्य तेल और आलू प्याज को इसके दायरे से बाहर कर दिया। यह वह चीजे़ हैं जो हर घर की रसोई की न्यूनतम आवश्यकताएं हैं। आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत सरकार इनकी कीमतों और होर्डिंग पर नियन्त्राण रखती थी। इस संशोधन से यह चीजे सरकार के नियन्त्रण से बाहर हो गयी। लेकिन आम आदमी के सामने इसी के साथ (किसान उत्पादन व्यापार और वाणिज्य संवर्धन और सुविधा तथा मूल्य आश्वासान और कृषि सेवा किसान सशक्तिकरण और संरक्षण समझौते ) नाम से दो और विधेयक जनता के सामने रख दिये। इस आश्य के अध्यादेश पांच जून को जारी किये गये थे। शैल के आठ जून के संपादकीय में इसकी संभावित आशंकाओं पर विस्तृत चर्चा की हुई है और आज वही आशंकाएं जन चर्चा में है। आज प्रधानमन्त्री कह रहे हैं कि इससे किसान बागवान को पूरा देश एक खुली मण्डी के रूप में हो जायेगा। किसान का जो उत्पीड़न आढ़ती के हाथों होता था उससे मुक्ति मिल जायेगी कृषि उत्पादों के व्यापार पर लगाने वाली सारी बंदिश समाप्त कर दी गयी है। उपज की खरीदारों का दायरा बढ़ जायेगा। बड़ी-बड़ी कंपनीयों के साथ वह खरीद और उत्पादन के समझौते कर पायेगा। यदि किसान को उसकी उपज का सही दाम नही मिल पाता है तो वह उसका भण्डारण कर सकता है। इसी साथ यह आश्वासन दिया जा रहा है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था भी जारी रहेगी।
यदि सरकार के इन सारे आश्वासनों का आकलन किया जाये तो इन सारे संशोधनों का मूल है कि किसान को उसकी उपज की उसकी लागत के अनुरूप कीमत मिले। लेकिन यह सुनिश्चित करने का कोई तन्त्रा नही रखा गया है। यह किसान और खरीदार के बीच सीधे संबंध पर आधारित होगा। लेकिन जिस भी व्यक्ति को किसानी और खेत का थोड़ा भी जाना ही संभव नही हो पाता है तो वह कहां कहां भटकता फिरेगा। क्या किसान के पास भण्डारण की सुविधा है शायद नही। ऐसे में क्या वह अन्तः में आढ़ती, अन्य व्यापारी या कंपनी की ही शर्तो पर उपज बेचने को बाध्य नही हो जायेगा। यदि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य जारी रखती है तो क्या उससे किसान को उपज की मनमुताबिक कीमत मिल पायेगी? क्या न्यूनतम समर्थन मूल्य और मन मुताबिक कीमत आपस में स्वतः विरोधी नही है। क्या खुला बाज़ार बताकर सरकार स्वयं ही उत्पीड़न की श्रेणी में नही आ जायेगी क्योंकि वह तो न्यूनतम मूल्य देगी। फिर यदि न्यूनतम मूल्य जारी ही रखना है तो एक उपज एक बाजार और मनचाही कीमत का क्या अर्थ रह जायेगा। शायद आज किसान सरकार की कथनी और करनी के भेद को समझ चुका है। इसीलिये वह प्रधानमन्त्री पर भी विश्वास करने को तैयार नही है। उसे लग रहा है कि इन विधेयकों के माध्यम से उसे बहुराष्ट्रीय कंपनीयों के पास बन्धक बनाने का प्रयास किया जा रहा है।