Friday, 19 September 2025
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सरकार जल्दबाजी में क्यों क्या कोई बड़ा ऐजैण्डा आने वाला है

कृषि विधेयक अब कानून बन गये हैं और इनको लेकर देशभर के किसान आन्दोलित हैं और सड़कों पर है क्योंकि वह संगठित हैं उनकी आवाज उठाने के लिये मंच उपलब्ध हैं। विपक्ष उनके साथ खड़ा है। इन विधेयकों को लेकर उनकी चिन्ता और आशंकाएं एकदम जायज़ हैं। सरकार के स्पष्टीकरणों पर विश्वास करने का आम आदमी के पास कोई आधार नही है यह अब तक के अनुभव से स्पष्ट हो जाता है। सरकार का कोई भी आर्थिक फैसला आम आदमी के लिये लाभदायक सिद्ध नही हुआ है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि आम आदमी के पैसे से सरकार चल रही है और कार्पोरेट घरानो के पैसे से भाजपा का संगठन चल रहा है। नोटबंदी के माध्यम से कालेधन को समाप्त करने का दावा और वायदा किया गया था। लेकिन नोटबंदी के बाद आज तक यह आकंडा देश के सामने नहीं आया है कि कितना कालाधन खत्म हुआ है जबकि चुनावों से पहले लाखों करोड़ का कालाधन होने का राग अलापा जा रहा था। जनधन में जीरो बैलैन्स खाते और उज्जवला योजना के तहत मुफ्त गैस सिलेण्डर देने के दावों की हकीकत सरकार पर विश्वास न करने के लिये पर्याप्त आधार है। इन आधारों को जीएसटी अब नौकरियों पर प्रतिबन्ध और प्रवासी मज़दूरों को लेकर सरकार के पास कोई आंकड़े न होना इस अविश्वास और पुख्ता करता है। शायद इसी अविश्वास का परिणाम है कि भाजपा का सबसे पुराना साथी अकाली दल मोदी सरकार छोड़ने के बाद एनडीए को भी छोड़ आया है। ऐसा इसलिये हो रहा है कि इन विधेयकों से न केवल किसान बल्कि हर आदमी प्रभावित होगा। क्योंकि जब सरकार ने आवश्यक वस्तु अधिनियम से हर रसोई में इस्तेमाल होने वाले आवश्यक खाद्यानों बाहर करके उनके भण्डारण और कीमतों पर नियन्त्रण रखने के अधिकार को ही खत्म कर दिया है तो इसका असर कीमतों के बढ़ने का ही होगा। इसलिये आज इस किसान आन्दोलन को समर्थन देना आवश्यक हो जाता है।
इस समय देश कोरोना के संकट से लड़ रहा है, पूरी अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है। करोड़ो लोगों की नौकरियां जा चुकी हैं। हर आदमी प्रभावित हुआ है और कुछ भी अतिरिक्त आर्थिक बोझ उठाने की स्थिति में नहीं है। सरकार भी इस स्थिति को जानती है इसलिये तो आर्थिक पैकेज जारी किया गया था। ऐसे मे यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जब सरकार जानती है कि देश आर्थिक संकट से गुजर रहा है तब भी इस तरह के विधेयक लाकर इस संकट को और क्यों बढ़ाया जा रहा है? फिर संसद में और संसद से बाहर इन पर कोई चर्चा नहीं होने दी जाती है। जब भी किसी आर्थिक मुद्दे को लेकर कोई सवाल उठाया जाता है तब उसे एकदम पहले प्रधानमंत्री स्व. नेहरू के काल तक ले जाते हुए मोदी से पहले तक के हर प्रधानमंत्री को दोषी ठहरा दिया जाता है। पीएम फण्ड केयर को लेकर पुछे गये सवाल में संसद में यह सब देखने को मिल चुका है। इससे यह आशंका उभरती है कि सरकार जान बुझकर एक अराजकता जैसा वातावरण खड़ा कर रही है। ऐसा लगता है कि अराजकता के माहौल में किसी और बड़े ऐजैण्डे पर काम किया जा रहा है। क्योंकि इस समय संसद में जो बहुमत हासिल है वैसा दोबारा मिलना कठिन है। हर ऐजैण्डे के लिये संसद के ही मार्ग से होकर आना होगा। शीर्ष न्यायपालिका और बड़े मीडिया से इस समय विरोध आने की कोई संभावनाएं दूर दूर तक नजर नहीं आ रही हैं। आम आदमी महामारी से डरा हुआ है। इस तरह का वातावरण कुछ भी नया थोपने के लिये सबसे सही वक्त माना जाता है।
इस तरह की आशंकाएं इसलिये उभर रही हैं क्योंकि पिछले दिनो भाजपा नेता डा. स्वामी का जनवरी 2000 में फ्रन्टलाईन में छपा एक लेख अचानक चर्चा में आ गया है। इस लेख में डा. स्वामी ने आरएसएस की कार्यप्रणाली पर प्रकाश डालते हुए खुलासा किया है कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के अक्तूबर 1998 मे हुए अधिवेशन में वर्तमान संसदीय प्रणाली को बदलने का एक प्रस्ताव पारित किया गया था जिसमें दो सदनों के स्थान पर तीन सदन बनाने की बात की गयी है। इस लेख की चर्चा सामने आते ही भाजपा के मीडिया सैल ने स्वामी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। डा. स्वामी ने जवाबी हमला करते हुए आईटी सैल के प्रमुख अमित मालवीय को ही हटाने की मांग कर दी थी। भाजपा के वरिष्ठ नेतृत्व की ओर से इस प्रसंग का कोई खण्डन नही आया है। स्वामी के इस लेख के बाद संघ के नेता राजेश्वर सिंह का ब्यान सामने आता है। इन्होंने मोदी के प्रधानमन्त्री बनने के बाद कहा था कि ‘‘हमारा लक्ष्य भारत को 2021 तक हिन्दुराष्ट्र बनाना है...’’ इसके लिये संस्कार भारती के साथ आरोग्य भारती ईकाईयों द्वारा उत्तम सन्तति के लिये गर्भ विज्ञान अनुसन्धान केन्द्रों की 2020 तक प्रत्येक राज्य में स्थापना की योजना का जिक्र किया गया है। गुजरात के जामनगर, गांधी नगर और अटल बिहारी वाजपेयी हिन्दी विश्वविद्यालय भोपाल में गर्भ विज्ञान संस्कार पाठ्यक्रम शुरू हो चुकने का दावा किया गया है। देश के कई शहरों में इस आश्य के सैमीनार आयेजित हो चुके हैं। हिन्दु राष्ट्र के लिये संघ की कार्य योजना किस तरह की है इसकी विस्तृत चर्चा दिल्ली विश्वविद्यालय के सेवानिवृत प्रो. शमशुल ईस्लाम के एक आकलन से सामने आयी है। इसका भी कोई खण्डन नही आया है। हिन्दु राष्ट्र के इस ऐजैण्डे को असम उच्च न्यायालय के न्यायधीश जस्टिस चैटर्जी के उस फैसले से और बल मिल जाता है जिसमें उन्होंने स्वतः संज्ञान में ली एक याचिका पर यह फैसला दिया है कि भारत को अब हिन्दुराष्ट्र घोषित कर दिया जाना चाहिये और मोदी जी में ही ऐसा करने की क्षमता है। इस फैसले के बाद डा. मोहन भागवत के नाम से भारत के नये संविधान की चर्चा भी बाहर आ चुकी है। इस प्रस्तावित संविधान का प्रारूप शैल पाठकों के सामने बहुत पहले रख चुका है। इस प्रस्तावित संविधान के प्रकरण पर भी कोई खण्डन नही आया है।
इस तरह हिन्दुराष्ट्र के ऐजैण्डे की चर्चाएं पिछले कुछ समय से उठती आ रही है। इन चर्चाओं का कोई भी खण्डन न तो केन्द्र सरकार की ओर से और न ही आरएसएस की ओर से आया है। यदि समय समय पर उठी चर्चाओं को इकट्ठा मिलाकर देखा जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इसके माध्यम से देश की नब्ज देखी जा रही थी। इस परिदृश्य में यह माना जा रहा है कि सरकार का अगला ऐजैण्डा निश्चित रूप से हिन्दुराष्ट्र होने जा रहा है।

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