Friday, 19 September 2025
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चिंतन के बाद कांग्रेस से अपेक्षाएं

बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी के साथ ब्याज दरों तथा ई एम आई का बढ़ना और शेयर बाजार से विदेशी निवेशकों का पलायन कुछ ऐसे संकेत है जिनसे यह लगने लगा है कि कहीं भारत के हालात भी पड़ोसी देश श्रीलंका जैसे तो नहीं होने जा रहे हैं। क्योंकि इस सब के कारण विदेशी मुद्रा भंडार का संतुलन भी बिगड़ गया है। अर्थ शासन के सारे विकल्प गड़बड़ा चुके हैं। आने वाले दिनों में कारपोरेट सैक्टर को या तो 15 से 20% तक नौकरियों में या वेतन में कटौती करनी पड़ेगी। यह वह हालात है जिनमें से देश की बहुसंख्या को गुजरना ही पड़ेगा। चाहे वह सरकार की नीतियों के जितने भी समर्थक रहे हों। देश इस दिशा में क्यों पहुंचा है इस पर कभी खुली बहस नहीं हो पायी है। बैंकों का एनपीए क्यों बढ़ता गया? कर्जदार कर्ज लेकर देश से बाहर कैसे चले गये? कंपनियों को दिवालिया होने की सुविधा देते हुये उनके संचालकों को व्यक्तिगत जिम्मेदारियों से क्यों मुक्त रखा गया? बैंकों का कितना एनपीए राइट ऑफ करके उस घाटे को आम आदमी के जमा पर ब्याज दरें घटाकर पूरा करने का प्रयास किया गया। कैसे जीरो बैलेंस के खातों में न्यूनतम निवेश की शर्त डाली गयी? नोटबंदी से जब उद्योग प्रभावित हुये तब उनको उबारने के लिये कर्ज की शक्ल में आर्थिक पैकेज देने के बावजूद वह संकट से बाहर क्यों नहीं आ पाये? कोरोना में आये लॉकडाउन से उत्पादन को प्रभावित होने से क्यों नहीं बचाया जा सका? जब यह सब घट रहा था तब देश में हिंदू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद, गाय, लव जिहाद, तीन तलाक और धारा 370 जैसे मुद्दों पर जनता को व्यस्त रखा गया। अधिकांश मीडिया भी सरकार की अंधभक्ति में व्यस्त हो गया। असहमति जताने वाले हर स्वर को दबाने कुचलने के लिये देशद्रोह झेलने का डर दिखाया गया। हर चुनाव में ईवीएम पर खड़े सवालों को आज तक नजरअंदाज किया गया। चुनावी रणनीतिकार राजनीतिक दलों को चुनाव जीतने के सूत्र तो सुझाते रहे लेकिन समाज इस संकट से कैसे बाहर निकले यह आज तक उनके लिये मुद्दा नहीं बन पाया है। जबकि राजनीतिक दलों के लिये यह पहला मुद्दा होना चाहिये था। क्योंकि राजनीतिक दलों की ही यह पहली जिम्मेदारी है। जब राजनीतिक दल यह जिम्मेदारी निभाने में असफल हो जायेंगे तब यहां भी श्रीलंका की तरह जनता सड़कों पर उतरने को विवश हो जायेगी। यह याद रखना होगा कि श्रीलंका में 2017 में धार्मिक और दूसरे अल्पसंख्यकों के खिलाफ प्रताड़ना का चलन शुरू हुआ था। जो आज जनक्रांति बनकर सामने आया है। इस समय यह चर्चा उठाना इसलिये आवश्यक है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस अभी तीन दिन का चिंतन मन्यन करके लौटी है। इस चिंतन में अल्पसंख्यकों को लेकर चिंता व्यक्त की गयी है। उनमें विश्वास जगाने के लिए कुछ क्रियात्मक कदम उठाने की बात की गई है इसी के साथ कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्षा ने कांग्रेसजनों से कुछ त्याग करने की मांग भी की है। यह कहा गया कि पार्टी ने उन्हें जो कुछ दिया है उसे अब लौटाने की आवश्यकता है। यह स्वीकारा गया है कि इस समय देश असाधारण परिस्थितियों से गुजर रहा है जिनमें कठिन फैसले लेने आवश्यक होंगे। त्याग की मांग पर कितने नेता अमल कर पाते हैं और कितने इसी के कारण पार्टी से बाहर भी चले जाते हैं यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन आज जो मुख्य मुद्दा है वह बढ़ते आर्थिक असंतुलन का है जिसमें कुछ लोगों की संपत्ति तो इस संकट काल में भी कई गुना बढ़ गयी है और अधिकांश साधनहीन होता जा रहा है। आम आदमी के पेट के लिये जब व्यवस्था संकट खड़ा कर देती है तब वह व्यवस्था की नीयत और नीति के जागरूक होने का प्रयास करता है। आज व्यवस्था की नीयत और नीति के हर पहलु पर आम आदमी को जानकार तथा जागरूक करने की आवश्यकता है। 2014 में जिस भ्रष्टाचार का सरकार को पर्याय प्रचारित कर सत्ता परिवर्तन हुआ था उस पर आज क्या स्थिति है यह सवाल पूछने का साहस हर आदमी में जगाने की आवश्यकता है। आज सत्तारूढ़ दल के वैचारिक आधारों पर बहस उठाने की जरूरत है। यह समझाने की आवश्यकता है कि चयन के स्थान पर मनोनयन परिवारवाद से ज्यादा घातक होता है। यह धारणा हिलानी होगी कि केवल संभ्रान्त को ही शासन का अधिकार है। प्राकृतिक संसाधनों की स्वायत्तता के खतरों पर खुली बहस आयोजित करने की जरूरत है। क्योंकि सत्तारूढ़ दल के लिये संघ स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद इन धारणाओं के लिये वैचारिक धरातल तैयार करने में लगा रहा है। जिसके परिणाम इस तरह से सामने आ रहे हैं। आज हर राजनीतिक दल के लिये इन बिंदुओं पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। इसके लिये कांग्रेस की जिम्मेदारी सबसे बड़ी हो जाती है।

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