द्रौपदी मुर्मू देश की पन्द्रहवीं राष्ट्रपति बनी है। आजाद भारत में पैदा हुई और आदिवासी समाज से आने वाली मुर्मू का प्रारम्भिक जीवन बहुत संघर्षपूर्ण रहा है। पति और बेटों की मौत के बाद एक लिपिक के रूप में अपना जीवन शुरू करके शिक्षक बनी और वहीं से राजनीतिक शुरुआत करके इस पद तक पहुंची हैं। यह आदिवासी होना ही इस चयन का आधार बना है। क्योंकि देश में 10 करोड़ आदिवासी हैं और बहुत सारे राज्यों में जीत का गणित आदिवासियों के पास है। इसी गणित के कारण झारखण्ड सरकार ने राजनीति में कांग्रेस के साथ होने के बावजूद राष्ट्रपति के लिए आदिवासी मुर्मू को अपना समर्थन दिया। पश्चिम बंगाल में भी करीब सात प्रतिश्त आदिवासी हैं इसी के कारण ममता को यह बयान देना पड़ा था कि यदि एन.डी.ए. ने मुर्मू की पूर्व जानकारी दे दी होती तो टी.एम.सी. भी द्रौपदी मुर्मू का समर्थन कर देती। पिछली बार जब एन.डी.ए. ने रामनाथ कोविन्द को उम्मीदवार बनाया था तब दलित वर्ग से ताल्लुक रखने का तर्क दिया गया था। इस तरह के तर्कों से यह स्पष्ट हो जाता है कि अब राष्ट्रपति जैसे सर्वाेच्च पद के लिये भी संविधान की विशेषज्ञता जैसी अपेक्षाओं की उम्मीद करना असंभव होगा। जिस दल के पास सत्ता होगी अब राष्ट्रपति भी उसी दल की विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध एक बड़ा कार्यकर्ता होगा। दल के नेता के प्रति निष्ठा ही चयन का आधार होगी।
इस समय देश की आर्थिक स्थिति बहुत ही संकट से गुजर रही है। सरकार को साधारण खाद्य सामग्री पर भी जीएसटी लगाना पड़ गया है। रुपये की डॉलर के मुकाबले गिरावट लगातार जारी है। संसद में महंगाई और बेरोजगारी पर लगातार हंगामा हो रहा है। राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ जांच एजेंसियों का इस्तेमाल अब आम आदमी में भी चर्चा का विषय बनता जा रहा है। सत्तारूढ़ भाजपा मुस्लिम मुक्त हो चुकी है। संसद से लेकर राज्यों की विधानसभाओं तक भाजपा में एक भी मुस्लिम सदस्य नहीं है। सर्वाेच्च न्यायालय के जजों तक को सोशल मीडिया में निशाना बनाया जा रहा है। नई शिक्षा नीति में मनुस्मृति को पाठयक्रम का हिस्सा बनाने की बात हो रही है। इस परिदृश्य में भी सबका साथ सबका विकास सबका विश्वास के दावे किये जा रहे हैं। यशवन्त सिन्हा लगातार यह सवाल जनता के सामने रख रहे थे और द्रौपदी मुर्मू लगातार चुप्पी साधे चल रही थी। आदिवासी समाज के सौ से अधिक लोग कैसे बिना कसूर के पांच वर्ष जेल में रहे हैं यह सच भी सामने आ गया है। ऐसे में आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि बाबासाहेब अंबेडकर के संविधान की रक्षा मुख्य मुद्दा बनेगी या मनुस्मृति को पाठयक्रम का हिस्सा बनाना।